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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ८९ )
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पूर्व न्याय में बताया है उसी तरह यहाँ भी 'गति' और 'ङस्युक्त' अंश में ऊपर बताये हुए प्रयोग में 'आप' का निषेध करने के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया है, वह (यत्नान्तराकरणम् ) ज्ञापक बन नहीं सकता है ।
वस्तुतः विभक्ति की उत्पत्ति का कारण कारक, संख्या इत्यादि की उपस्थिति ही है । जातिद्रव्य - लिङ्ग - सङ्ख्या और कारक रूप पदार्थों की उपस्थिति क्रमिक ही होती है । अतः विभक्त्युत्पत्ति से पूर्व लिङ्ग की उपस्थिति के निमित्तस्वरूप ' आप्' यहाँ प्रथम होना चाहिए अर्थात् पूर्वोपस्थिति के निमित्तत्व के कारण विभक्ति - उत्पत्ति की अपेक्षा से लिङ्गनिमित्तक 'आप्' की उत्पत्ति अन्तरङ्ग है । अतः कहीं भी अकारान्त शब्द प्राप्त नहीं होगा तो अकारान्त 'क्रीत' शब्द से होनेवाला 'ङी' प्रत्यय निरवकाश ही होगा । अतः वह अकारान्त निर्देश व्यर्थ होकर ज्ञापन करता है कि विभक्त्यन्त कारकों को कृदन्त के साथ विभक्ति की उत्पत्ति से पूर्व ही समास हो जाता है और ' एकदेशानुमत्या संपूर्णस्य' न्याय से, उसे संपूर्ण न्याय का ज्ञापक मानना चाहिए ।
इस न्याय को बृहद्वृत्ति में ज्ञापकसिद्ध नहीं कहा है किन्तु इष्टित्वस्वरूप कहा है, ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी 'ङस्युक्तं कृता' ३/१/४९ की बृहद्वृत्ति में कथित 'इह गतिकारकङस्युक्तानां विभक्त्यन्तानामेव......समास इष्यते' शब्दों के आधार पर कहते है । अतः इस न्याय को ज्ञापकसिद्ध न कहकर आचार्यश्री के वचनस्वरूप ही मानना चाहिए । इसका आशय केवल इतना ही है कि 'गति' और 'ङस्युक्त' अंश में ज्ञापक नहीं है, अतः केवल कारक अंश में ही ज्ञापक का उपन्यास करना इससे अच्छा है कि पूर्ण न्याय को वचनस्वरूप में स्वीकार किया जाय और उसके लिए 'इष्यते ' शब्द का प्रयोग किया है ।
तथा 'सा हि धनक्रीता, प्राणेभ्योऽपि गरीयसी ।' जैसे उदाहरण के लिए कुछेक इस न्याय को अनित्य मानते हैं और कहते हैं कि यहाँ 'क्रीत' से समास होने से पूर्व ही विभक्ति होने से उससे पूर्व स्त्रीत्वनिमित्तक 'आप्' हो गया है। जबकि 'क्रीतात्करणादेः' २/४/४४ सूत्र की बृहद्वृत्ति में कहा ही कि 'धनं च सा क्रीता च धनक्रीता' स्वरूप कर्मधारय समास होता है और यदि 'धनेन क्रीता धनक्रीता' समास किया जाय तो वह अपप्रयोग है अथवा अन्य के मत से 'धनेन क्रीता धनक्रीता' में आप् प्रत्ययान्त के साथ भी समास होता है और 'बहुलाधिकार' से वैसा हो सकता है और समास होने के बाद अकारान्तत्व नहीं होने से, ङी नहीं होता है ।
यह न्याय शाकटायन, चान्द्र, कातंत्र और कालाप परम्परा को छोड़कर अन्य सभी परिभाषा संग्रह में उपलब्ध है ।
॥ ८९॥ समासतद्धितानां वृत्तिर्विकल्पेन वृत्तिविषये च नित्यैवापवादवृत्तिः ॥ ३२॥ समास और तद्धित की वृत्ति विकल्प से होती है और वृत्ति के पक्ष में विषय में अपवाद की प्रवृत्ति नित्य होती है अर्थात् उत्सर्ग स्वरूप वृत्ति की प्रवृत्ति नहीं होती है पर अर्थ को कहनेवाली 'वृत्ति' कही जाती है। वह तीन प्रकार की है १. समासवृत्ति, २. तद्धितान्तवृत्ति ३. नामधातुवृत्ति । उदा. 'राज्ञः पुरुष राजपुरुषः, उपगोरपत्यं औपगवः, पुत्रमिच्छति
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