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द्वितीय वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. ९० )
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इस न्याय का ज्ञापन 'सङ्ख्यातैकपुण्यवर्षादीर्घाच्च रात्रेरत्' ७/३/११९ में रहे 'एक' शब्द होता है । यहाँ इस सूत्र में 'च' कार से पूर्व के 'सर्वांशसङ्ख्याऽव्ययात्' ७ / ३ / ११८ सूत्र से 'सङ्ख्या' शब्द की अनुवृत्ति होती है, और 'एक' शब्द भी संख्यावाचक ही है, तो उसका भी ग्रहण 'संख्या' शब्द से हो सकता है तथापि उसका यहाँ पृथग्ग्रहण किया, उससे ज्ञापित होता है कि 'एक' शब्द को क्वचित् सङ्ख्यावाचक नहीं माना जाता है। अतः जब उसमें 'सङ्ख्यात्व' नहीं होगा तब भी इसी 'सङ्ख्यातैक -" ७/३/ ११९ से 'एक' शब्द जिसके आदि में है वैसे 'रात्रि' अन्तवाले' अर्थात् 'एकरात्रि' शब्द से भी 'अत्' समासान्त होगा ।
'क्वचित्' कहने से कुछेक स्थान पर ही एक शब्द का असङ्ख्यात्व है, शेष स्थान पर प्रायः वह सङ्ख्यावाचक ही है । अतः 'एकधा' इत्यादि प्रयोग में 'सङ्ख्याया धा' ७/२/१०४ से धा प्रत्यय होगा ।
इस न्याय का स्वरूप ही अनित्य होने से उसकी अनित्यता नहीं है ।
यह न्याय अन्य किसी परिभाषासंग्रह में उपलब्ध नहीं है । यह न्याय लोकव्यवहार सिद्ध ही है क्योंकि 'एक' शब्द के विविध अर्थ कोशकार ने भी दिये हैं। वह इस प्रकार है 'एकोऽन्यार्थे प्रधाने च, प्रथमे केवले तथा ।
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साधारणे समानेऽल्पे सङ्ख्यायां च निगद्यते ॥
'एकशब्दस्य प्रसिद्धिस्तावत् सङ्ख्यात्वस्यैव' ऐसा श्रीहेमहंसगणि ने कहा, वही 'प्रसिद्धि' शब्द से ही कुछ ज्ञात हो जाता है। और 'एकगुरुकः, एकाधिकरण, एक आचार्याः' इत्यादि प्रयोगों में वह संख्या अर्थ से भिन्न अर्थ में प्रयुक्त है, वह लोकप्रसिद्ध ही है और अन्य वैयाकरण इस न्याय का आश्रय नहीं करते हैं किन्तु 'एकाह' शब्द की सिद्धि करने के लिए उसमें 'अह्न' आदेश न हो इसके लिए, 'अह्न' आदेश का निषेध करनेवाले सूत्र में ही 'एक' शब्द का ग्रहण किया है | उदा. उत्तमैकाभ्यां च ' (पा.सू. ५/४/९० ) । उनके मत से 'एकाह' शब्द पुल्लिङ्ग है । जबकि सिद्धहेम में लिङ्गानुशासनानुसार वह नपुंसकलिङ्ग है। शब्द के लिङ्ग के लिए वैयाकरण के वचन की आवश्यकता नहीं है क्योंकि महाभाष्य में कहा है कि 'लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वात् लिङ्गस्य' । अतः शब्द के लिङ्ग के लिए लोकव्यवहार को ही प्राधान्य देना ।
इस न्याय को न्याय के स्वरूप में स्वीकार करना नहीं चाहिए, ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं क्योंकि 'एकाह' शब्द की सिद्धि के लिए ही इस न्याय की आवश्यकता है ।
यहाँ 'सर्वांशसङ्ख्याऽव्ययात् ' ७/३/११८ सूत्र से 'एकाह' मे 'अहन्' का अह्न आदेश होने की प्राप्ति है किन्तु उसके बाद आये हुए 'सङ्ख्यातैकपुण्य' - ७/३/ ११९ में पूर्वसूत्र से 'सङ्ख्या' शब्द की अनुवृत्ति आती होने पर भी 'एक' शब्द का ग्रहण किया है। उससे यह सिद्ध होता है कि पूर्वसूत्र में 'सङ्ख्या' शब्द से 'एक' का ग्रहण नहीं होता है और बृहद्वृत्ति में भी कहा है कि 'एकग्रहणं सङ्ख्याग्रहणेनानेनैकस्याग्रहणार्थम् तेन पूर्वसूत्रे सङ्ख्याग्रहणेन एकस्याग्रहणम् - एकमहः एकाहम्' इन शब्दों के आधार पर श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि इन शब्दों द्वारा श्रीहेमचन्द्रसूरिजी 'एक' शब्द का विशेष अर्थ ही बताना चाहते हैं किन्तु सामान्य ऐसे इस न्याय का ज्ञापन करना नहीं चाहते हैं ।
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