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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) यदि यह न्याय न होता तो 'जिजावयिषति' इत्यादि प्रयोग में वृद्धि और 'आव्' आदेश अन्तरङ्ग होने से प्रथम वृद्धि और 'आव' आदेश करने के बाद द्वित्व करने पर 'आ' का हुस्व करने के बाद पूर्व के 'अ' का 'सन्यस्य' ४/१/५९ से 'इ' सिद्ध हो सकता है, तो उसके लिए 'ओर्जान्तस्थापवर्गे'- ४/१/६०, जैसा बडा सूत्र क्योंकिया जाय ? अर्थात् ऐसा बृहत्सूत्र न करना चाहिए तथापि किया । वह व्यर्थ होकर ज्ञापन करता है कि वृद्धि और 'आव्' का स्थानिवद्भाव होने पर 'सन्यस्य' ४/१/५९ से इत्व की सिद्धि नहीं हो सकती है। अतः इस न्याय की आशंका से ही इत्व के लिए 'ओर्जान्तस्थापवर्गे'-४/१/६० स्वरूप दीर्घसूत्र किया है।
यह न्याय अनित्य है । अतः णिनिमित्तक हुए जिस कार्य का स्थानिवद्भाव करना है उसका आधारभूत वर्ण या वर्णसमुदाय यदि अवर्णवाला हो तो ही इस न्याय की प्रवृत्ति होती है अन्यथा नहीं । उदा. कृतण चुरादि है । अतः ‘णि' प्रत्यय पर में होने पर कृतः कीर्तिः' ४/४/१२२ से 'की' आदेश होने के बाद 'अचिकीर्तत्' होगा । यहाँ 'की' का ही द्वित्व होगा किन्तु 'कृ' का द्वित्व नहीं होगा क्योंकि की स्वरूप वर्णसमुदाय ईकारवाला है किन्तु अकारवाला नहीं है । अतः स्थानिवद्भाव का अभाव होता है।
यहाँ किसी को शंका हो सकती है कि यहाँ इस न्याय की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? क्योंकि णौ में निमित्तसप्तमी है, जबकि 'की' आदेश तो निनिमित्त है । यही बात सच है, तथापि 'येन विना यन्न स्यात्, तत्तस्यानिमित्तस्यापि निमित्तम्' न्याय से 'णिच्' के संनियोग में ही 'की' आदेश पाया जाता है । अतः णिच् संनियोग के बिना अनुपपन्न की आदेश के लिए 'णिच्' अनिमित्त होने पर भी निमित्त माना जाता है।
'स्थानीवाऽवर्णविधौ' ७/४/१०९ परिभाषा के प्रपंच-स्वरूप यह न्याय है । इसके बाद के/ अगले न्याय से लेकर 'उणादयोऽव्युत्पन्नानि नामानि' न्याय तक ग्यारह न्याय 'सर्वं वाक्यं सावधारणम्' न्याय की अनित्यता के प्रपंच स्वरूप है।
आ. श्रीहेमचन्द्रसूरिजी कहते हैं कि इस न्याय के फलस्वरूप 'पुस्फारयिषति,' और 'चुक्षावयिषति' इत्यादि प्रयोग में द्वित्व होने के बाद पूर्व खण्ड में उकार का श्रवण होता है । यहाँ 'पुस्फारयिषति' में 'चिस्फुरोर्नवा' ४/२/१२ से णिनिमित्तक हुए आत्व का और 'चुक्षावयिषति' में वृद्धि का स्थानिवद्भाव होता है।
श्रीहेमहंसगणि ने 'अचिकीर्त्तत्' रूप सिद्ध करने के लिए इस न्याय के अनित्यत्व का आश्रय किया है। जबकि श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि इस न्याय की अनित्यता का आश्रय करके इस रूप की सिद्धि करना, बृहद्वृत्ति के अनुसार ठीक नहीं लगता है क्योंकि अनित्यत्व का कोई ज्ञापक नहीं है और 'ज्ञापकसिद्धं न सर्वत्र' से प्राप्त अनित्यत्व प्रामाणिक नहीं माना जाता है । यह न्याय ज्ञापक साजात्यमूलक है क्योंकि शास्त्रकार आचार्यश्री ने स्वयं कहा है कि 'एतच्च ज्ञापकं चान्तःस्थापवर्गादन्यत्राऽप्यवर्ण एव द्रष्टव्यम् ।'
यदि इस न्याय को अनित्य माना जाय तो, उसी अनित्यता के स्थान का नियमन/निर्णय,
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