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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ९२) अनित्यता के ज्ञापक बिना कैसे प्राप्त होगा ? और ऐसे स्थानविशेष का निर्णय कहीं भी बताया नहीं है तथा यही अनित्यत्व महाभाष्य इत्यादि से विरुद्ध हैं । इसके अतिरिक्त इस न्याय को श्रीहेमहंसगणि ने 'स्थानीवाऽवर्णविधौ' ७/४/१०९ परिभाषा का प्रपंच कहा है, वह भी उचित नहीं है क्योंकि यहाँ आम तौर पर स्थानि स्वरूप 'उ' वर्ण का 'इ' वर्ण करना है और वह वर्णविधि है । अतः इस परिभाषा का यहाँ विषय ही नहीं है।।
वस्तुतः, सिद्धहेम की परम्परा में 'स्वरस्य परे प्राग्विधौ'.७/४/११० सूत्र से प्राप्त स्थानिवद्भाव का निषेध 'न सन्धि-ङी-य-क्वि-द्वि-दीर्घासद्विधावस्क्लु कि' ७/४/१११ सूत्र से होता है । उसके प्रतिप्रसव स्वरूप यह न्याय है अर्थात् अप्राप्तस्थानिवद्भाव की प्राप्ति का विधायक यह न्याय है ।
इस न्याय के ज्ञापक के बारे में आगे चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि किसी को यहाँ शंका हो सकती है कि 'ओर्जान्तस्थापवर्गेऽवणे' ४/१/६० सूत्र में 'णि' का ग्रहण नहीं किया है, तथापि उसके द्वारा 'णि' के विषय में स्थानिवद्भाव का अनुमान किस प्रकार होता है ? उसका प्रत्युत्तर देते हुए वे कहते हैं कि इसी सूत्र से 'सन्' प्रत्यय पर में होने पर 'इ' होता है और वही 'सन्' क्वचित् मुख्य होता है । उदा 'यियविषति, पिपविषति' इत्यादि, और क्वचित् वह गौण होता है । उदा. 'अबीभवत्, अपीपवत् ।'
वस्तुतः ‘ङ परक णि' होता है, तब ही सन्वद्भाव द्वारा सन्निमित्तक कार्य की प्राप्ति होती है। यदि केवल 'णि' के कारण ही इसी सूत्र से 'इ' होता हो तो, णि के विषय में स्थानिवद्भाव का ज्ञापन इसी सूत्र के 'जान्तस्थापवर्गे' शब्द से होना संभवित है, किन्तु वैसा नहीं है, क्योंकि केवल 'सन्' प्रत्यय पर में होने पर भी इत्व होता है । यही बात सत्य है क्योंकि सन् प्रत्यय निमित्तक 'इत्व' केवल 'यियविषति, पिपविषते' इत्यादि प्रयोग में दिखायी पड़ता है। जबकि अन्यत्र ‘सन्', 'णि' से व्यवहित ही पाया जाता है और वहाँ णि के कारण 'सन्यस्य' ४/१/५९ से ही इत्व सिद्ध हो जाता है । अतः 'जान्तस्थापवर्गे' शब्द व्यर्थ होते हैं। उसके सार्थक्य के लिए 'णि' के विषय में उसे ज्ञापक मानने में कोई दोष नहीं है।
श्रीहेमहंसगणि ने बताया है कि यदि णिनिमित्तक हुए कार्य का स्थानिवद्भाव करना हो तो, उसके आधारभूत वर्ण या वर्णसमुदाय अवर्णयुक्त होना चाहिए, और तो ही इस न्याय की प्रवृत्ति होती है, अन्यथा इस न्याय की प्रवृत्ति नहीं होती है । इसके उदाहरण में 'पुस्फारयिषति' के 'स्फा' को वर्ण माना है, और 'जिजावयिषति' के 'जाव्' को वर्णसमुदाय माना है, किन्तु 'स्फा' वर्ण नहीं है, वर्णसमुदाय ही है । अतः 'स्फा' और 'जाव्' दोनों को वर्णसंमुदाय ही मानने चाहीए । परिणामत: 'आधारभूत वर्ण या वर्णसमुदाय अवर्णयुक्त होना चाहीए' ऐसा न कहकर 'आधारभूत वर्णसमुदाय अवर्णयुक्त होना चाहिए' ऐसा कहना समुचित प्रतीत होता है।
यह न्याय चान्द्र, पुरुषोत्तमदेवकृत परिभाषावृत्ति, सीरदेवकृत परिभाषावृत्ति, हरिभास्करकृत परिभाषावृत्ति में प्राप्त है, अन्यत्र नहीं ।
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