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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) विभक्त्यन्त होना चाहिए किन्तु उसका जिसके साथ समास होता है वह विभक्त्यन्त न होना चाहिए। अतः कच्छ अम् का विभक्ति रहित क प्रत्ययान्त 'प' के साथ ' ङस्युक्तं कृता' ३/१/४९ से समास होगा और कच्छप' शब्द बनेगा । उससे स्त्रीलिंग में 'जातेरयान्त- २/४/५४ से ङी प्रत्यय होने पर, 'अस्य यां लुक्' २/४/८६ से 'अ' का लोप होकर 'कच्छपी' शब्द बनेगा। यदि विभक्त्यन्त 'प' के साथ 'कच्छ अम्' का समास होता तो, विभक्ति होने से पूर्व 'प' से आप होता और आप् प्रत्यय होने से अकारान्तत्व के अभाव में ङी नहीं होगा।
पंचमी के 'भ्यस्' प्रत्यय से उक्त भी 'उपर्युक्त युक्ति द्वारा' 'ङस्युक्त' ही कहलाता है । 'विषं धरति इति विषधरी' इत्यादि प्रयोग में 'विष अम् धर' स्थिति में आयुधादिभ्यो' धृगोऽदण्डादेः' ५/ १/९४ से पंचमी बहुवचन के 'भ्यस्' प्रत्ययान्त 'आयुधादिभ्यो' शब्द से 'विष' शब्द उक्त है, तथापि वह 'ङस्युक्त' ही कहा जाता है । अतः 'विष अम्' को 'अच्' प्रत्ययान्त 'धर' शब्द के साथ 'इस्युक्तं कृता' ३/१/४९ से समास होगा बाद में स्त्रीत्व की विवक्षा में 'जातेरयान्त'- २/४/५४ से 'डी' प्रत्यय होगा । यदि विभक्त्यन्त 'धर' शब्द के साथ 'विष अम्' का समास होता तो ऊपर बताया उसी तरह यहाँ 'आप' प्रत्यय होता और 'धर' के अदन्तत्व के नाश से 'डी' प्रत्यय नहीं होता।
इस न्याय के कारक अंश में ज्ञापक, 'क्रीतात्करणादेः' २/४/४४ सूत्रगत अकारान्त 'क्रीत' शब्द है । वह इस प्रकार है :- यहाँ 'क्रीतात्करणादेः' २/४/४४ में 'करणादेः क्रीतात्' कहा है और करण का आदि अवयवत्व, समास के बिना संभव नहीं है । संक्षेप में करणरूप शब्द जिस समास के आदि में है ऐसे अकारान्त 'क्रीत' शब्दान्त समास से 'डी' प्रत्यय होता है।
यदि यह न्याय न होता तो सामान्यतया विभक्त्यन्त को विभत्यन्त के साथ ही समास होता है । अतः यदि विभक्त्यन्त 'क्रीत' शब्द के साथ 'करण कारक' स्वरूप शब्द का 'कारकं कृता' ३/१/६८ से समास होता तो 'क्रीत' शब्द के अदन्तत्व का संभव नहीं है क्योंकि आप् प्रत्यय अन्तरङ्ग कार्य होने से, विभक्ति के पूर्व ही वह होता है, तथापि यहाँ 'क्रीत' शब्द के अदन्तत्व को ग्रहण किया है, वह ज्ञापन करता है कि कारक को अविभक्त्यन्त कृदन्त के साथ ही समास होता है।
इस न्याय के 'गति' और 'ङस्युक्त' अंश का ज्ञापन 'विष्किरी, कच्छपी' इत्यादि प्रयोग में 'डी' के बाधक/ प्रतिबन्धक 'आप' प्रत्यय का निषेध करने के लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया है, उससे होता है। वह इस प्रकार है :- 'विष्किरी, कच्छपी' इत्यादि प्रयोग में आचार्यश्री को 'डी' ही इष्ट है और वह तब ही होता है कि जब 'आप' द्वारा शब्द के अदन्तत्व का विघात न होता हो। यदि आचार्यश्री को उत्तरपद का विभक्त्यन्तत्व ही इष्ट होता तो वह विभक्ति का बाध करके 'आप' प्रत्यय ही होने से उत्तरपद के अदन्तत्व का व्याघात करेगा ही।
तथापि 'आप' का निषेध करने के लिए कोई प्रयत्न नही किया है, उससे ज्ञापित होता है कि इस न्याय से कृदन्तस्वरूप उत्तरपद के अविभक्त्यन्तत्व का नियम होने से, विभक्ति करते समय होनेवाले, 'आप' प्रत्यय का निषेध हो ही गया है। अत: 'विष्किरी, कच्छपी' इत्यादि शब्दों में 'आप' द्वारा अदन्तत्व का व्याघात भी नहीं होगा और 'ङी' प्रत्यय निःसंकोच होगा ही ।
इस न्याय की अनित्यता प्रतीत नहीं होती है।
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