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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) प्रयोग किया है, अतः समास नहीं होता है । यदि 'पुरुष' शब्द का अपने विशेषण 'शूर' शब्द की सापेक्षता से ही असमर्थ होने से पूर्वोक्त न्याय से ही यहाँ भी समास के अभाव की सिद्धि हो जाती तो, उसी समास के अभाव के लिए 'साम्यानुक्ति' शब्द का ग्रहण क्यों किया ? अर्थात् न करना चाहिए तथापि ग्रहण किया है, वह बताता है कि, पूर्वोक्त न्याय का बाधक यह न्याय होने से, इस न्याय से 'पुरुष' शब्द, 'शूर' शब्द से सापेक्ष होने पर भी, प्रधान/पुख्य होने से 'च्यान' शब्द के साथ, अनिष्ट ऐसा समास हो ही जायेगा, ऐसी आशंका से ही 'साम्यानुक्ति' कहा है।
इस न्याय की अनित्यता/विसंवादिता प्रतीत नहीं होती है।
यह न्याय और अगला न्याय 'तद्धितीयो भावप्रत्ययः' - ॥३०॥ न्याय भी पूर्वोक्त न्याय का अपवाद है तथा ये दोनों न्याय 'किं हि वचनान भवति' न्याय के प्रपंच हैं।
श्रीहेमहंसगणि इस न्याय की अनित्यता का निर्देश नहीं करते हैं, तदुपरांत पूर्वोक्त 'सापेक्षमसमर्थम्' न्याय की अनित्यता 'देवदत्तस्य दासभार्या' उदाहरण देकर बतायी है । इस उदाहरण में 'देवदत्तस्य दासभार्या' का 'देवदत्तस्य दासस्य भार्या' विग्रह करने पर 'दास' शब्द सापेक्ष होने से असमर्थ है तथापि समास किया है । यही उदाहरण इस न्याय की अनित्यता बतानेवाला बन सकता है।
इसके बारे में श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि क्वचित् अप्रधान/गौण भी सापेक्ष होने पर भी, उसका समास होता है। उदा. 'देवदत्तस्य दासभार्या', यहाँ 'देवदत्तस्य यो दासः तस्य भार्या' स्वरूप प्रतीति में 'दास' शब्द अप्रधान होने पर भी और 'देवदत्तस्य' विशेषण से सापेक्ष होने पर भी, 'गमकत्व' के कारण समास होगा।
'समर्थः पदविधिः' ७/४/१२२ की बृहद्वृत्ति में कहा है कि क्वचित् विशेषण के योग में भी यदि गमकत्व हो तो समास होता ही है । उदा. देवदत्तस्य गुरुकुल' 'यज्ञदत्तस्य दासभार्या'अतः अन्यत्र कहा है कि -
"सम्बन्धिशब्दः सापेक्षो, नित्यं सर्वः प्रवर्तते ।
स्वार्थवत् सा व्यपेक्षा हि, वृत्तावपि न हीयते ॥" संक्षेप में, जहाँ वृत्ति अर्थात् समास में सम्बन्ध की हानि न होती हो तो, वहाँ सापेक्षत्व होने पर भी अप्रधान का भी समास होता है।
‘समर्थः पदविधिः' ७/४/१२२ सूत्र से समर्थत्व हो वहाँ ही 'पदविधि' होती है ऐसा कहा और पूर्वोक्त न्याय से सामान्यतया जो सापेक्ष है वह असमर्थ माना जाता है, तथापि 'राजपुरुषोऽस्ति दर्शनीयः' इत्यादि प्रयोग में सापेक्षत्व होने पर भी समास होता है, उसका ज्ञापन करने के लिए उसके साधुत्व के लिए, यह न्याय कहा है।
श्रीलावण्यसूरिजी ने उनकी 'तरंग' टीका में सापेक्षत्व की विस्तृत विचारणा की है। कुछेक स्थान पर प्रधान सापेक्ष हो, वैसे सामासिक शब्द भी पाये जाते हैं और अप्रधान/गौण सापेक्ष हो, वैसे भी समास पाये जाते हैं । अतः प्रश्न होता है कि किस प्रकार का सापेक्षत्व समास के लिए उचित माना जाय ? इस प्रश्न के बार में उन्होंने महाभाष्यादि ग्रन्थों के आधार पर विशेष रूप से
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