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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) दूसरी दृष्टि से विचार करने पर स्यादिप्रत्यय में प्रत्येक स्यादिप्रत्यय आ जाता है, जबकि स्वरादिस्यादि में, व्यञ्जनादिस्यादि का समावेश नहीं होता है । उसी दृष्टि से 'नोऽन्त' अल्प प्रदेशवाला है, जबकि 'अत्व' अधिक प्रदेशवाला है, अतः कदाचित् 'नोऽन्त' को अन्तरङ्ग और 'अत्व' को बहिरङ्ग माना जा सकता है, किन्तु इस प्रकार का अन्तरङ्गत्व और बहिरङ्गत्व स्वीकृत नहीं है । अतः यहाँ परत्व ही व्यवस्थापक है ।
इस न्याय के ज्ञापक के औचित्य के बारे में चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि 'उदच उदीच्' २/१/१०३ और 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' ७/४/४३ में तुल्य बलत्व नहीं है अतः उन दोनों के बीच किसी भी प्रकार की स्पर्धा नहीं है । उसी कारण से इस न्याय के विषय के रूप में उसे न लेना चाहिए । वे कहते हैं कि 'उदच्' का 'उदीच्' आदेश विशेषविधि है और विशेषविधि, सामान्यविधि से बलवान् होती है, अत: उन दोनों के बीच तुल्यबलत्व नहीं है और यदि प्रतिपदोक्तत्व के कारण 'उदीच्' आदेश को बलवान् माना जाय तो भी, उन दोनों में तुल्यबलत्व नहीं होता है।
यद्यपि लघुन्यास में 'णि' वर्जन की चर्चा करते हुए, इस न्याय की प्रवृत्ति बतायी है और इस न्याय की व्याख्यानुसार वह उचित प्रतीत होती है । यदि यह न्याय न होता तो ‘णि वर्जन' के बिना ही 'उदयति' रूप सिद्ध हो सकता है क्योंकि बिना णि वर्जन, उदच्' से 'णि' प्रत्यय होने पर 'उदच उदीच्' २/१/१०३ और 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' ७/४/४३ की प्राप्ति है किन्तु 'उदच उदीच्' २/१/ १०३ विशेष विधि होने से प्रथम होगी, बाद में 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' ७/४/४३ से अन्त्यस्वरादि का लोप होकर 'उदयति' रूप बन सकता है। अतः यही णि वर्जन व्यर्थ होकर इस न्याय का ज्ञापन करता है। अतः इस न्याय के कारण यदि 'णि' वर्जन न किया होता तो "उदच्' का ' उदीच' आदेश होने के बाद 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' ७/४/४३ से अन्त्य स्वरादि का लोप नहीं होगा। इस प्रकार 'उदच उदीच्' २/१/१०३ सूत्रगत ‘णि' वर्जन इस न्याय का ज्ञापक बनता है। इस बात का अस्वीकार करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि पूर्वोक्त रीति से 'स्पर्द्ध' ७/४/११९ परिभाषा का नियमार्थमूलक अर्थघटन करने पर इस न्याय की सिद्धि होती है तथापि, ये दोनों सूत्र केवल अन्यत्र सावकाश होने से ही तुल्यबलत्व है ऐसा स्वीकार करके लघुन्यासकार ने यहाँ इसी प्रयोग में इस न्याय का स्वीकार किया है और ‘णि' वर्जन की सार्थकता बतायी है ।
पाणिनीय परम्परा में 'उदच उदीच्' २/१/१०३ सूत्र के स्थानि 'उद ईत्'.....सूत्र में 'णि' वर्जन नहीं किया गया है । उनके मत में 'उदीचयति' रूप ही होता है । 'णि' वर्जन न करने पर भी ‘उदीच्' आदेश के अन्त्यस्वरादि का 'नैकस्वरस्य' ७/४/४४ से लोप नहीं होता है । 'उदीच्' या 'उदच्' का एक स्वरत्व किस प्रकार है उसकी स्पष्टता करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि पाणिनीय परम्परानुसार उपसर्ग-स्वरूप पूर्वपद को, समुदाय-स्वरूप शब्द से धातुनिमित्तक प्रत्यय करते समय, पृथक् किया जाता है । इस बात का स्वीकार करके 'उदच्'और 'उदीच्' में 'उद्' को पृथक् करने पर 'अच्’ और' ईच्’ ऐसा एक स्वरवाला स्वरूप प्राप्त होता है । अतः 'नैकस्वरस्य' ७/४/४४ से अन्त्यस्वरादि का लोप नहीं होगा ।
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