________________
२४८
न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) होती है। अतः द्वितीया अवश्य होगी । परिणामतः 'अक्षान् देवयति' प्रयोग भी होगा । ऐसा मानने पर कर्मसंज्ञा सावकाश होने से द्वितीया ही होनी चाहिए, ऐसी शंका को स्थान ही नही रहता है । 'संज्ञा न संज्ञान्तरबाधिका' का 'प्रतिकार्यं संज्ञा भिद्यन्ते' न्याय के साथ फल की समानता होने पर भी अर्थ की दृष्टि से दोनों भिन्न हैं।
'प्रतिकार्यं संज्ञा भिद्यन्ते' न्याय की सिद्धहेम बृहद्वृत्त्यनुसार चर्चा इस प्रकार है :- बृहद्वृत्ति में 'करणं च' २/२/१९ सूत्र के 'च' कार का फल बताते हुए कहा है कि 'करणं वा' कहने से ही सिद्धि हो जाती थी, तथापि 'च' दो संज्ञाओं का समावेश करने के लिए है । ऐसा कहकर आगे कहते हैं कि “अत: 'अक्षैर्देवयते मैत्रश्चैत्रेण' उदाहरण में 'अक्ष' से करणत्व के कारण तृतीया होती है और 'अक्ष' के कर्मत्व के कारण, 'गतिबोधाहारार्थ-' २/२/५ से 'नित्याकर्मत्वनिमित्तक, अणिग अवस्था के कर्ता को कर्मत्व प्राप्त नहीं होता है । अतः 'चैत्रेण' में तृतीया होगी और 'देवयते' में 'अणिगि प्राणि' - ३/३/१०७ से अकर्मत्वनिमित्तक परस्मैपद भी नहीं होगा।" बाद में पुनः शंका की गई है कि 'अक्षान् दीव्यति' प्रयोग में भी 'अक्ष' को कर्म और करण संज्ञा हुई है । अतः पर ऐसी करणसंज्ञानिमित्तक तृतीया विभक्ति ही करनी चाहिए । उसका उत्तर देते हुए कहा है कि यही शंका उचित नहीं है। स्पर्धा हो वहाँ ही पर सूत्र बलवान् बनता है और स्पर्द्धा तो समान विषय में ही होती है और प्रतिनियत कर्मशक्ति व प्रतिनियत करणशक्ति का अभिधान करनेवाली द्वितीया और तृतीया में समानविषयत्व ही नहीं है। अतः द्वितीया ही होगी । यही प्रथम समाधान है। दूसरा समाधान देते हुए कहा है कि 'प्रतिकार्यं संज्ञा भिद्यन्ते' न्याय से दोनों संज्ञा अनवकाश होने से द्वितीया और तृतीया दोनों अनुक्रम से/पयार्य से करने में कोई विरोध नहीं है।
इसमें प्रथम समाधान 'संज्ञा न संज्ञान्तर बाधिका' न्याय का अनुमोदक है क्योंकि उसमें कहा है कि समान विषयवालों में ही परस्पर विरोध होता है । अतः भिन्न विषयवाली दो संज्ञाओं में परस्पर विरोध का अभाव होने से पर ऐसी करण संज्ञा से पर्वोक्त कर्मसंज्ञा का बाध नहीं होता है। दसरे समाधान में कहा है कि विरोध हो तो भी अनवकाश संज्ञा का परसंज्ञा से बाध नहीं होता है और यहाँ अनवकाशत्व तो दोनों संज्ञा का है। जबकि 'अक्ष' के कर्मत्व के कारण, 'अणिकर्ता' को कर्मत्व की प्राप्ति नहीं होगी तब 'देवयते' में परस्मैपद नहीं होगा। इस परिस्थिति में अनवकाशत्व कैसे है ? इसी शंका का समाधान 'प्रतिकार्यं संज्ञा भिद्यन्ते' मत द्वारा दिया है । वह इस प्रकार है :- संज्ञा निमित्तक जितने कार्य हैं उसी प्रत्येक कार्य के लिए भिन्न भिन्न संज्ञा सूत्र समझने चाहिए, वैसे यहाँ द्वितीयोत्पत्ति रूप कार्य के लिए 'दिव्' धातु के करण को कर्म संज्ञा करनेवाले सूत्र का, द्वितीयोत्पत्ति के बिना अनवकाशत्व अक्षत ही रहता है और द्वितीया विभक्ति होती है क्योंकि करणसंज्ञा से कर्मसंज्ञा का बाध नहीं होता है।
और न्यासकार ने भी 'प्रतिकार्य' की स्पष्टता करते हुए कहा है कि एक ही कर्म के या करण के प्रत्येक कार्य के लिए भिन्न भिन्न संज्ञासूत्र मानने चाहिए । न्यासकार की यही स्पष्टता उपर्युक्त अर्थ ही सूचित करती है किन्तु श्रीहेमहंसगणि ने बताया हुआ व्याख्याद्वयस्वरूप अर्थ या सूत्रभेद से विरोधाभाव इत्यादि अर्थ का प्रतिपादन नहीं करता है । यदि सूत्रभेद से विरोधाभाव हो जाता तो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org