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द्वितीय वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. ८४ )
से पृथक नहीं कहा गया है ।
सामान्यतया परसूत्र पूर्व का, और अपवाद उत्सर्ग का तथा विशेषविधि सामान्य विधि का बाधक बनता है । उसी तरह पूर्वसूत्रोक्त संज्ञा का उसीसे सम्बन्धित परसूत्रोक्त संज्ञा से बाध नहीं होता है।
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बाध्य और बाधक एकसाथ नहीं रह सकते हैं, उसी अर्थमूलक यह न्याय है । अर्थात् जहाँ दोनों एकसाथ हों तो वहाँ उनके बीच परस्पर बाध्यबाधकभाव नहीं रहता है । अतः एक शब्द या वर्ण में अनेक संज्ञाएँ होती हैं, ऐसे न्यायसिद्ध या औचित्यसिद्ध अर्थ ही यहाँ कहा है । अतः जहाँ दो भिन्न भिन्न संज्ञाओं का फल एक साथ न रहता हो, वहाँ वे संज्ञाएँ एक साथ करना संभव नहीं होने से जिस कार्य का बाध होता है, उसी कार्य की प्रयोजक संज्ञा की प्रवृत्ति नहीं होती है क्योंकि उसका कोई फल नहीं है ।
श्रीमहंसगणि ने 'प्रतिकार्यं संज्ञा भिद्यन्ते' न्याय की व्याख्या ' प्रतिकार्यं संज्ञाविधायकानि शास्त्राणि भिद्यन्ते ' की है और उसका अर्थ लघुन्यास के अनुसार सही होने पर भी, संज्ञासूत्र की पुनः आवृत्ति करने से, दो संज्ञा के बीच के बाध्यबाधक भाव की निवृत्ति होती है, ऐसा कहकर जो विवेचन किया है, उसे श्रीलावण्यसूरिजी उचित नहीं मानते हैं ।
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यहाँ कर्म और करण स्वरूप दो संज्ञाओं के बाध्यबाधकभाव का कारण, दो परस्पर विरुद्ध विभक्तियाँ हैं । और संज्ञासूत्र की पुनः आवृत्ति करने से यह दूर नहीं होता है, क्योंकि विरोध के हेतु की निवृत्ति के अभाव में भी, सूत्रावृत्ति करने से विरोध की निवृत्ति होती है, वह न्याय्य प्रतीत नहीं होता है ।
और यहाँ दृष्टांत के रूप में 'दो सपत्नियों / सौतों के बीच जो विरोध है वह एक ही घर में, बीच में दीवार करके, दो घर बनाने पर दूर हो जाता है' ऐसा जो कहा, वह भी उचित नहीं है क्योंकि दो सौतों के बीच का विरोध एकगृहनिमित्तक नहीं है किन्तु समानपतिकात्व सम्बन्धित है । अतः गृह के दो भाग करने से उसकी निवृत्ति का कैसे संभव है ? वैसे दो संज्ञाओं के बीच का विरोध सूत्र की पुनः आवृत्ति करने से कैसे दूर हो सकता है ?
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तथा लघुन्यास में बताये सूत्रभेदकरण का आशय इस प्रकार है कि जितने भिन्न भिन्न संज्ञानिमित्तक कार्यो की संभावना हो, उतने भिन्न भिन्न संज्ञाविधायक सूत्रों कि कल्पना करना । यही बात महाभाष्य में भी बतायी है । उसका अर्थ इस प्रकार है द्वितीया की उत्पत्ति करनेवाली कर्मसंज्ञाविधायक 'करणं च ' २/२/१९ सूत्र को भिन्न मानना और अकर्मत्व प्रयुक्त, अणिक्कर्ता को कर्म करनेवाली तथा 'अणिगि प्राणिकर्तृकानाप्याण्णिग: ' ३/३/१०७ सूत्र से परस्मैपद नहीं करनेवाली कर्मसंज्ञा भिन्न होनेसे उसके लिए कर्मसंज्ञाविधायक 'करणं च ' २/२/१९ को भिन्न मानना । अतः 'अक्षैर्देवयते यज्ञदत्तेन' प्रयोग में 'अणिक्कर्ता' को कर्मत्व न होने से और परस्मैपद का भी अभाव होने से द्वितीया की उत्पत्ति की प्रयोजक ऐसी कर्म संज्ञा चरितार्थ न होने से वही कर्म संज्ञा अनवकाश
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