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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ८० )
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यह न्याय अनित्य / अनिश्चित होने से 'प्रियतिसृणः कुलस्य' में 'आगमात् सर्वादेशः ' न्याय से प्रथम बाधित 'न' का आगम 'तिसृ' आदेश होने के बाद भी होगा । यहाँ 'प्रियत्रि' शब्द में 'त्रि' का 'त्रिचतुर: ' २/१/१ से 'तिसृ' आदेश होनेवाला है, और 'अनाम्स्वरे' - १/४/६४ से 'न' का आगम भी होनेवाला है, तो 'आगमात्सर्वादेश:', 'अनाम्' ...१/४/६४ का बाध करेगा और 'तिसृ' आदेश होने के बाद भी, पूर्वबाधित 'न' का आगम होगा ।
श्री लावण्यसूरिजी इस न्याय को लोकसिद्ध बताते हैं । उदा. समान बलयुक्त दो मालिकों का सेवक एक ही मनुष्य हो तो, वही सेवक दोनों मालिकों के कार्य अनुक्रम से करेगा, किन्तु जब एक ही साथ दोनों मालिकों के कार्य भिन्न भिन्न (विरुद्ध) दिशा के होंगे तो वह दोनों कार्य एकसाथ करने में असमर्थ होने से दो में से जो बलवान् होगा, उसका कार्य करेगा और निर्बल का कार्य नहीं करेगा । वैसे यहाँ व्याकरणशास्त्र में भी, दोनों समान बलवाले सूत्र में स्पर्धा होगी और परत्व आदि अन्य किसी भी निमित्त से जो बलवान् होगा, उसकी प्रवृत्ति होगी ।
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'स्पर्द्ध' ७/४/११९ सूत्र का ही यह न्याय प्रपंच है और स्पर्धे' ७/४/११९ सूत्र की नियमार्थतामूलक यह न्याय है । अर्थात् 'स्पर्द्धे' ७/४/११९ से जहाँ समान बलवाले सूत्र एकसाथ उपस्थित होते हों वहाँ परसूत्र सम्बन्धित कार्य होता है, बाद में पूर्वसूत्र सम्बन्धित कार्य होता है या नहीं ? इसकी कोई बात बताई गई नहीं है । जबकि इस न्याय से परसूत्र सम्बन्धित कार्य होने के बाद, पूर्वसूत्रप्राप्त कार्य नहीं होता है ।
इस न्याय के उदाहरण 'द्वयोः कुलयो: ' में 'द्वि' शब्द से 'अनाम्स्वरे' - १/४ / ६४ से 'नोऽन्त' करने के लिए 'आदेशादागमः ' न्याय की प्रवृत्ति बतायी है, उसे श्रीलावण्यसूरिजी उचित नहीं मानते हैं। इसके बारे में वे कहते हैं कि 'अनाम्स्वरे - ' १/४/६४ के न्यास में केवल परत्व और अन्तरङ्गत्व के कारण ही, उसी सूत्र की 'द्वयोः कुलयो: ' में प्रवृत्ति नहीं होती है और 'नोऽन्त' नहीं होता है, ऐसा बताया है । वहाँ 'आदेशादागमः ' न्याय की प्रवृत्ति बतायी नहीं है। इसके अतिरिक्त उन्होंने स्वयं ही 'द्वयोः कुलयोः' उदाहरण में 'आदेशादागमः ' न्याय की अनित्यता बता दी है । अतः यहाँ इस न्याय की चर्चा अनावश्यक है ।
यदि यहाँ ‘आदेशादागमः ' न्याय की प्रवृत्ति होती तो परत्व, अन्तरङ्गत्व इत्यादि आदेश को बलवत्तर नहीं बना सकते हैं क्योंकि यह न्याय कहता है कि परत्व, नित्यत्व, अन्तरङ्गत्व इत्यादि से बलवान् बने आदेश से भी आगम बलवान् है ।
यहाँ परत्व और अन्तरङ्गत्व में से वास्तव में क्या है ? उसकी चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि वस्तुतः यहाँ परत्व से ही व्यवस्था होती है, अन्तरङ्गत्व से नहीं क्योंकि अन्तरङ्गत्व बहिरङ्गत्व से सापेक्ष है । तो 'नोऽन्त' और 'अत्व' में से बहिरङ्ग कौन ? एक दृष्टि से विचार करने पर 'नोऽन्त' स्वरादिनिमित्तक है अतः उसे बहिरङ्ग मानने की इच्छा होती है किन्तु वह 'स्यादि' विशेषण सहित है अतः वह स्यादिनिमित्तक ही है । जबकि 'अत्व' भी स्यादिनिमित्तक ही है, अर्थात् दोनों समान हुए ।
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