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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ८२)
२३७ यहाँ 'नी' इत्यादि आगम आत्व का अपवाद है, अतः 'नी' इत्यादि आगम ही प्रथम होगा, अतः 'आगुणौ'- ४/१/४८ में 'नी' इत्यादि का वर्जन व्यर्थ हुआ , वह इस न्याय का ज्ञापन करता है । इस न्याय का ज्ञापन होने के बाद, 'नी' इत्यादि आगम, आत्व का बाध करने में समर्थ नहीं हो सकता है। अतः 'आगुणावन्यादेः' ४/१/४८ में 'न्यादि' वर्जन सार्थक होगा । यहाँ ऐसा न कहना चाहिए कि 'नी' इत्यादि आगम होने से पहले, अभ्यास (द्वित्व हुए) के पूर्वखंड से 'नी' इत्यादि का आगम करने पर भी 'आत्व' दुर्वार ही है क्योंकि जब आत्व नहीं होगा तब 'नी' इत्यादि आगम करने के बाद 'अन्यादेः' से होनेवाले निषेध की संभावना होने से 'उपसंजनिष्यमाणनिमित्तोऽप्यपवाद उपसंजातनिमित्तमप्युपसर्ग बाधते' न्याय से प्रथम आत्व की प्रवृत्ति नहीं होगी।
यदि 'न्यादि' का वर्जन न किया होता तो 'नी' इत्यादि में इस न्याय के कारण बाधकत्व का संपूर्ण अभाव हो जाता है। अतः पुनः आत्व की प्रवृत्ति दुर्वार हो जाती है। उसी आत्व का निषेध करने के लिए 'नी' इत्यादि का वर्जन आवश्यक है । यहाँ कोई ऐसा कह सकता है कि "वनीवच्यते' में 'वनी' अंश में आकारान्तत्व नहीं होने से आत्व की प्राप्ति ही नहीं है । अतः आत्व
का निषेध व्यर्थ होगा और न्यादि वर्जन व्यर्थ होगा । उसके प्रत्युत्तर में बताया जा सकता है कि 'न्यादि' का वर्जन जिस अंश में व्यर्थ होकर न्याय का ज्ञापन करता है, वहाँ वैयधिकरण्य से भी अन्वय का ज्ञापन करता है । प्रस्तुत उदाहरण में 'न्यादि' वर्जन से द्वित्व में पूर्व के साथ सम्बन्धित अकार के आत्व स्वरूप वैयधिकरण्य - अन्वय का भी ज्ञापन होता है । अतः 'नी' आगम करने से, अकारान्तत्व के अभाव से प्राप्त दोष नहीं रहता है, ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं।
यह न्याय सिर्फ चान्द्र, कातंत्र की भावमिश्रकृत परिभाषावृति, कातंत्रपरिभाषापाठ, कालाप परिभाषापाठ व भोज परम्परा में नहीं है। ॥८२॥ कृतेऽन्यस्मिन् धातुप्रत्ययकार्ये पश्चाद्वृद्धिस्तद्वाध्योऽट् च ॥ २५॥
धातु के प्रत्ययसम्बन्धित अन्य सर्व कार्य करने के बाद वृद्धि और उसका बाध्य 'अट्' होता है।
यद्यपि यहाँ 'वृद्धि' सामान्य से कहा है तथापि, 'अट्' आगम की बाधक 'स्वरादेस्तासु' ४/ ४/३१ से होनेवाली 'वृद्धि' ही यहाँ लेनी है । यदि ऐसा न किया जाय तो 'अट्' और 'वृद्धि' का बाध्यबाधकभाव नहीं होगा । अतः 'तद्वाध्य' 'अट्' का विशेषण नहीं होगा।
'बलवन्न्त्यिमनित्यात्, अन्तरङ्ग बहिरङ्गात्' इत्यादि न्यायों का अपवाद यह न्याय है । वृद्धि इस प्रकार होती है :
__'ऋक् गतौ' धातु से 'ह्यस्तनी' के परस्मैपद का अन्यदर्थे बहुवचन का 'अन्' प्रत्यय होने पर 'ऐयरुः' रूप और 'अधि' उपसर्गपूर्वक 'इंङ्क् अध्ययने' धातु से 'ह्यस्तनी' आत्मनेपद अन्यदर्थे बहुवचन का 'अन्त' प्रत्यय होने पर 'अध्यैयत' रूप होता है।
यहाँ धातोरिवर्णोवर्णस्येयुव्'- २/१/५० से 'इय्' आदेश हो या न हो, तो भी ‘स्वरादेस्तासु'
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