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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ७७)
२२३ ग्रहण होता किन्तु मेंङ्' का ग्रहण न होता और तो ‘मा इति मां -मांङ्-मेंङाम् ग्रहणम्' कहा वही अयुक्त ही होता, किन्तु यह न्याय होने से, वही उक्ति अयुक्त/असंगत नहीं मानी जायेगी।
इस अंश में भी यह न्याय परिप्लव/चंचल है । अतः ‘मिमीमादामित्स्वरस्य' ४/१/२० सूत्र में सामान्य से प्रत्येक 'मा' धातु का ग्रहण करने के लिए बहुवचन का प्रयोग किया है । यदि यह न्याय नित्य होता तो, इस न्याय से ही प्रत्येक 'मा' धातु का ग्रहण हो सकता था, तो बहुवचन का प्रयोग करने की कोई आवश्यकता न थी, तथापि बहुवचन का प्रयोग किया, वह इस न्यायांश की अनित्यता बताता है ।
__'दा' का ग्रहण इस प्रकार है - 'प्राज्ज्ञश्च' ५/१/७९ में 'ज्ञा' रूप धातु के साहचर्य से 'दा' रूप धातु का यहाँ ग्रहण करना किन्तु 'दा' संज्ञक धातु का आग्रह न करना और इतना कहकर बाद में इस न्याय के बल से अविशेषरूप में 'दा' रूपवाले छ: धातुओं का ग्रहण किया है। उदा. 'डुदांगक दाम् वा' धनप्रदः ‘दों' वृक्षप्रदः । 'देंङ्' पुत्रप्रदः । 'दांवक्' केदारप्रदः । 'व्' भोजनप्रदः । यहाँ छः धातु 'से' प्राज्ज्ञश्च' ५/१/७९ सूत्र से 'ड' प्रत्यय किया है ।
यदि यह न्यायांश न होता तो 'अदाद्यनदाद्यो:'- न्याय से 'डुदांगक' और 'दांवक्' इन दो धातु को छोड़कर केवल शेष चार धातुओं का ही ग्रहण होता अथवा 'लक्षणप्रतिपदोक्तयोः'- न्याय से 'दों, देंङ्' और 'दैव्' को छोड़कर केवल तीन ही धातुओं का ग्रहण होता अथवा 'कृत्रिमाकृत्रिमयो:'न्याय से 'डुदांग्क्, दाम्, दांवक्' को छोड़कर केवल तीन धातुओं का ग्रहण होता किन्तु छः धातुओं का ग्रहण न होता ।
'दाटधेसिशदसदो रु:' ५/२/३६ सूत्र की वृत्ति में 'षडपि दारूपा ग्राह्याः ' कहा वह इस न्याय का ज्ञापक है क्योंकि इसी सूत्र में 'ट्धे' को पृथक् कहने से केवल इतना ही कहा जा सकता है कि यहाँ 'दा' शब्द से 'दा' संज्ञा का आग्रह नहीं करना चाहिए अर्थात् ट्धे (धयति ) की पृथगुक्ति से यहाँ, दा संज्ञा का निरास सिद्ध होता है, किन्तु दा रूप छः धातुओं का ग्रहण कैसे सिद्ध होता है ? क्योंकि ऊपर बताया उसी तरह 'अदाद्यनदाद्यो:'- 'लक्षणप्रतिपदोक्तयोः'- 'कृत्रिमाकृत्रिमयोः' - इत्यादि न्याय इन छ: धातुओं के ग्रहण में विक्षेप करनेवाले हैं तथापि 'दारूपा षडपीह ग्राह्याः' ऐसा जो कहा, वह इस न्याय को 'अदाधनदाद्योः' इत्यादि तीनों न्यायों का अपवाद मानकर या उसका स्मरण करके ही कहा है।
इस न्यायांश में कोई अनित्यता प्रतीत नहीं होती है । यह न्याय 'स्वं रूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा' न्याय के 'स्वं रूपं शब्दस्य' अंश का प्रपंच है। (और अब आगे बलाबलोक्ति के दश न्याय कहते हैं)
इस न्याय में तीन अंश हैं । इन तीनों अंशों में श्रीहेमहंसगणि ने ज्ञापक बताये हैं, किन्तु वस्तुतः ज्ञापक तो केवल 'गा' स्वरूप अंश में ही है और वह सूत्रस्वरूप में है । जबकि शेष दो अंशों के ज्ञापक, वृत्ति में कहे गये शब्द हैं, किन्तु वे वास्तविक ज्ञापक नहीं हैं । 'ईर्व्यञ्जनेऽयपि'
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