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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.७७) 'अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य' न्याय की अनित्यता बतानेवाले न्याय के रूप में इसका स्वीकार किया है।
___ 'अन्, इन्, अस्, मन्' की तरह अतु' भी सार्थक और अनर्थक, दोनों प्रकार का ग्रहण होता है, ऐसा श्रीहेमहंसगणि ने बताया है । इसके बारें में श्रीलावण्यसूरिजी ने विस्तृत चर्चा की है । उसका सार इस प्रकार है । 'इदंकिमोऽतुरिकिय चास्य' ७/१/१४८ से विहित 'अतु' प्रत्ययान्त 'इयतु, कियतु' शब्द में 'अतु' सार्थक है किन्तु 'तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुः' ७/२/१ से हुए 'मतु' प्रत्ययान्त 'गोमतु' में 'अतु' अनर्थक है क्योंकि वह 'मतु' प्रत्यय का एक भाग है । जबकि व्याकरणशास्त्र में संपूर्ण प्रत्यय ही अर्थवान् माना जाता है किन्तु प्रत्यय का एक भाग अर्थवान् माना जाता नहीं है । अतः अत्वन्तनिमित्तक दीर्घ नहीं होता है तथापि अनर्थक अत्वन्त का स्वर भी 'अभ्वादेरत्वस: सौ' १/४/९० से दीर्घ हुआ है । इसके बारे में बृहन्यास में कहा है कि 'मतु' इत्यादि में 'उकार' अनुबन्ध किया, उसका फल दीर्घविधि ही है, अन्यथा 'उकार' अनुबंध न किया होता । उकार अनुबन्ध करने से 'अतु' के ग्रहण के साथ साथ 'मतु' का भी ग्रहण होता है। अन्यथा 'नोऽन्त' करने के लिए 'शतृ' की तरह 'मतु' का भी ऋकार अनुबन्ध किया होता ।
__'अतु, मतु,' और 'डावतु' इत्यादि प्रत्यय के बारे में चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि बृहन्यास में निम्नोक्त प्रकार से शंका करके समाधान किया है-'तदनुबन्धग्रहणे नातदनुबन्धकस्य ग्रहणम्' न्याय से 'अतु' के साथ, 'मतु' का भी ग्रहण हो सकता है किन्तु उसके साथ 'यत्तदेतदो डावादिः' ७/१/१४९ से होनेवाले 'डावतु' प्रत्यय और 'क्त-क्तवतु' ५/१/१७४ से होनेवाले ‘क्तवतु' प्रत्यय का ग्रहण नहीं होगा क्योंकि 'डावतु' और 'क्तवतु' में उकारानुबन्ध के साथ 'ड' और 'क' भी अनुबंध है । इसका समाधान देते हुए श्रीहेमचन्द्राचार्यजी कहते हैं कि यहाँ अनर्थक 'अतु' की भी तदन्तविधि होती है । अन्यथा 'मतु' आदि को उकारानुबन्ध न किया जाता और उकार अनुबंध का फल भी यही है कि 'अतु' के ग्रहण के साथ साथ 'मतु' आदि का भी ग्रहण होता है । अन्यथा 'नोऽन्त' करने के लिए 'शतृ' की तरह 'मतु' को भी ऋकार अनुबन्ध किया जाता । अतः यहाँ प्रत्यय सम्बन्धित 'तदनुबन्धग्रहणे नातदनुबन्धकस्य ग्रहणम्' (एकानुबन्धग्रहणे न द्वयनुबन्धकस्य ग्रहणम्) न्याय की प्रवृत्ति का अवकाश ही नहीं है । अतः ऊपर बताये हुए दोष का यहाँ संभव नहीं है ।
स्वोपज्ञवृत्तिकार/बृहन्न्यास (शब्दमहार्णवन्यास )कार आचार्यश्री को भी सार्थक 'अतु' के साथ साथ 'मतु, डावतु, क्तवतु' इत्यादि के अनर्थक 'अतु' का भी ग्रहण इष्ट है, वैसा बृहन्न्यास देखने पर स्पष्ट दिखायी पडता है। अतः श्रीहेमहंसगणि ने कहा वह सही है और आचार्यश्रीलावण्यसूरिजी को भी वह मान्य ही है। यह न्याय व्याडि के परिभाषासूचन, चान्द्र, कातंत्र और कालाप परम्परा में नहीं है।
॥७७॥ गामादाग्रहणेष्वविशेषः ॥२०॥ जहाँ सूत्र में 'गा-मा-दा' रूप में धातुओं का निर्देश किया हो वहाँ 'अविशेष' अर्थात् सामान्यतया सर्व का ग्रहण करना ।
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