________________
द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ७५)
२१५ विधिविषयत्व का स्वीकार करने पर 'तदन्तविधि' किसी भी प्रकार के बिना बाध होती है । अतः 'प्रियासृजोऽसावपृणद् द्विडस्ना' ऐसा व्याश्रय [ सर्ग-२, श्लोक-६७] का प्रयोग भी संगत होता है तथा इस न्याय को केवल प्रत्ययविधिविषयक मानने पर अथवा सामान्य से नामग्रहणविषयक मानने पर, ऐसे दोनों प्रकार से भी उपपदविधि में इस न्याय की प्रवृत्ति का बाध नहीं होता है । अतः 'उपपदविधिषु न तदन्तविधिः' न्याय भी 'ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधिः' न्याय में ही समाविष्ट हो जाता है । अतः उसका पृथक् निर्देश करना आवश्यक नहीं है।
'ग्रहणवता नाम्ना न तदादिविधिः' ऐसा भी न्याय देखने को मिलता है, ऐसा कहकर श्रीहेमहंसगणि ने 'न्यायार्थमञ्जूषाबृहद्वति' में इसकी सिद्धि की है, किन्तु यह न्याय वास्तव में है कि नहीं, इसके बारे में उनको भी शंका है। यही शंका इस न्याय के न्यास में उनके द्वारा प्रयुक्त 'न्यङ्कशब्दस्य व्युत्पत्तिपक्षस्त्विह नाद्रियते, न्यायसत्तासन्देहापादकत्वात्' शब्द से अभिव्यक्त होती है
और श्रीलावण्यसूरिजी ने इन शब्दों के आधार पर तथा सिद्धहेमबृहवृत्ति के अनुषाङ्गिक सबूतों को लेकर यह न्याय निर्मूल है अर्थात् ऐसे किसी भी न्याय का अस्तित्व नहीं है, ऐसा सिद्ध किया है। उनका कथन इस प्रकार है :
सिद्धहेमबृहद्वृत्ति द्वारा इतना ही सिद्ध होता है कि 'द्वार' इत्यादि शब्दों में तदादिविधि होती है, उसका ज्ञापन करने के लिए ही न्यग्रोधस्य केवलस्य' ७/४/७ सूत्र में केवलस्य' शब्द रखा है। केवल इतने से ही इस न्याय का ज्ञापन नहीं होता है। इसी केवलस्य' शब्द से इस न्याय का ज्ञापन तब ही हो सकता है कि जब अन्य किसी भी सबूत/प्रमाण से तदादिविधि सिद्ध होती हो, किन्तु यहाँ ऐसा कोई भी प्रमाण प्राप्त नहीं होता है कि जिससे कोई भी शब्दसम्बन्धित तदादिविधि' सिद्ध ही हो । उसके बदले/बजाय यहाँ 'स्वं रूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा' न्याय से 'द्वार' इत्यादि शब्दों को ही प्रत्ययविधि होनेवाली है क्यों कि उसका स्वरूप से ही ग्रहण किया है । अतः 'द्वारपाल' इत्यादि 'तदादि' शब्दों से, यही विधि किसी भी प्रकार से प्राप्त नहीं है, तथापि 'द्वारपाल' इत्यादि तदादि' शब्दों से भी, अकेले 'द्वार' शब्द से जो विधि होती है, वह होती है, उसका ज्ञापन करने के लिए 'न्यग्रोधस्य केवलस्य' ७/४/७ सूत्र में 'केवलस्य' शब्द रखा है और 'श्वादेरिति' ७/४/१० सूत्र भी इस बात का ही ज्ञापन करता है ।
इस न्याय (तदादिविधि) का ज्ञापन 'न्यग्रोधस्य केवलस्य' ७/४/७ सूत्र से होता है, ऐसा श्रीहेमहंसगणि ने बताया है और उन्होंने संपूर्ण सूत्र को ज्ञापक माना है, जबकि श्रीलावण्यसूरिजी ने 'न्यग्रोधस्य केवलस्य' ७/४/७ सूत्रगत 'केवलस्य' शब्द को ज्ञापक माना है क्यों कि इसी सूत्र का नियमपरक अर्थ और विधिपरक अर्थ बताया है। वह इस प्रकार है :- सिद्धहेम के द्वारादेः' ७/ ४/६ सूत्र की बृहद्वृत्ति के 'श्वादेरिति' ७/४/१० इति प्रतिषेधात् द्वारादिपूर्वाणामपि भवति द्वारपालस्यापत्यं दौवारपालिः' शब्दों की व्याख्या करते हुए लघुन्यासकार कहते हैं कि 'श्वन्' शब्द भी 'द्वारादि' ही है और उससे तदादि कार्य का प्रतिषेध होने से ही 'द्वारादि' शब्द में तदादि कार्य की प्राप्ति होती है । इस प्रकार बृहद्वृत्ति और लघुन्यास, दोनों से बोध हो सकता है कि 'द्वार' इत्यादि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org