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द्वितीय वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. ७३ )
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७३ ॥ ह्रस्वदीर्घापदिष्टं कार्यं न प्लुतस्य ॥ १६ ॥
ह्रस्व या दीर्घ को उद्देश्य बनाकर कहा गया कार्य प्लुत को नहीं होता है ।
प्लुत स्वर हमेशां ह्रस्व या दीर्घ के स्थान पर ही होता है । अतः 'भूतपूर्वकस्तद्वदुपचारः ' न्याय से वही प्लुत स्वर भी हूस्व या दीर्घ कहा जाता है । अतः ह्रस्व या दीर्घ शब्द का उच्चार करके कहा गया कार्य प्लुत को भी हो सकता है । इसका निषेध करने के लिए यह न्याय है ।
स्वादिष्ट कार्य इस प्रकार है- 'हे राज ३ निह'। यहाँ 'दूरादामन्त्रयस्य ... ७ / ४ / ९९ पर और नित्य होने से प्लुतविधि पहले होगी, बाद में प्लुत 'अ' के बाद आये हुए 'न्' का 'हूस्वान्ङणनो द्वे' १/३/२७ से द्वित्व नहीं होगा ।
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इस न्याय के इस अंश का ज्ञापक, 'हूस्वान्ङणनो- ' १/३/२७ में 'हुस्वात्' इस प्रकार सामान्य से ह्रस्व का विधान किया गया है, वह है क्योंकि यहाँ प्लुत न हो ऐसे ही ह्रस्व से पर आये हुए 'ङ, ण, न' का द्वित्व इष्ट है किन्तु प्लुत हो ऐसे ह्रस्व से पर आये हुए 'ङ ण, न' का द्वित्व इष्ट नहीं है, तथापि सूत्र में सामान्य से ह्रस्व का विधान किया गया वह इस न्याय के अस्तित्व के कारण ही ।
दीर्घादिष्टकार्य इस प्रकार है :
'अदीर्घाद्विरामैकव्यञ्जने' १/३/३२ में दीर्घ का वर्जन करने पर भी दीर्घ के स्थान पर हुए प्लुत का, इस न्याय के कारण वर्जन नहीं होता है अतः 'हे गो३ त्रात, हे गो३ त्रात' में दीर्घ के स्थान पर हुए प्लुत से पर आये हुए तकार का 'अदीर्घाद्विरामैकव्यञ्जने' १/३/३२ से ही द्वित्व होगा ।
इस न्यायांश का ज्ञापक 'प्लुताद्वा' १ / ३ / २९ सूत्र है । वह इस प्रकार है । 'अनाङ् माङो दीर्घाद्वा च्छ: ' १ / ३ / २८ सूत्र से दीर्घ के स्थान पर हुए प्लुत से पर आये हुए 'छ' का द्वित्व सिद्ध हो ही जाता था तथापि दीर्घ के स्थान पर हुए प्लुत से पर आये हुए 'छ' का द्वित्व करने के लिए 'प्लुताद्वा' १ / ३ / २९ किया क्योंकि इस न्याय के कारण दीर्घ शब्द से निर्दिष्ट कार्य दीर्घ के स्थान पर हुऐ प्लुत को नहीं होता है । अतः 'अनाङ्माङो दीर्घाद्वा च्छ: ' १ / ३ / २८ से दीर्घ के स्थान पर हुए प्लुत से पर आये हुए 'छ' का द्वित्व नहीं होगा । अत एव दीर्घ के स्थान पर किये गये प्लुत से पर आये हुए 'छ' का द्वित्व करने के लिए 'प्लुताद्वा' १ / ३ / २९ सूत्र किया है । उदा. आगच्छ भो इन्द्रभूते ३ च्छत्रमानय, आगच्छ भो इन्द्रभूते ३ छत्रमानय ।' यहाँ दीर्घ के स्थान पर हुए प्लुतस्वर 'इन्द्रभूते३' ' में 'ए३' है उससे पर आये 'छ' का विकल्प से द्वित्व 'अनाङ् माङो दीर्घाद्वा च्छ: ' १/ ३/२८ से नहीं होगा किन्तु 'प्लुताद्वा' १ / ३ / २९ से ही होगा ।
इस न्याय की अनित्यता मालूम नहीं पडती है ।
इस न्याय के हूस्वांश में ज्ञापक के रूप में श्रीहेमहंसगणि ने 'ह्रस्वान् ङणनो द्वे' १/३/ २७ में 'हूस्वान्' इस प्रकार सामान्योक्ति की गई है इसको बताया है। इस बात का श्रीलावण्यसूरिजी स्वीकार नहीं करते हैं । वे कहते हैं कि सामान्योक्ति करने से, प्लुत रूप का ग्रहण इष्ट नहीं है, ऐसा
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