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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) 'घञ्युपसर्गस्य बहुलम्' ३/२/८६ सूत्र भी उत्तरपद के अधिकार में है । अतः इस न्याय के कारण 'घजि' के स्थान में 'घञन्ते' कहना चाहिए, तथापि 'घञ्युपसर्गस्य बहुलम्' ३/२/८६ सूत्र के सामर्थ्य से ही तदन्तविधि प्राप्त होगी । अन्यथा सूत्र व्यर्थ होगा क्यों कि धस्वरूप उत्तरपद कभी ही प्राप्त नहीं है।
यहाँ कोई शंका कर सकता है कि 'अ' शब्द से 'आचार' अर्थ में 'क्विप्' प्रत्यय करके नामधातु बनाकर उससे, 'घञ्' प्रत्यय करने पर धातु स्वरूप का 'लुगस्याऽदेत्यपदे २/१/११३ से लोप होगा और घञ्' स्वरूप 'अ' ही शेष बचेगा, उसका उपसर्ग के साथ सम्बन्ध करने पर उपसर्ग के बाद 'घञ्' आयेगा । वहाँ उपसर्ग का अन्त्य स्वर दीर्घ होगा । किन्तु इसी परिस्थिति में 'घञ्युपसर्गस्य बहुलम्' ३/२/८६ सूत्र की कोई प्रवृति ही नहीं होगी क्योंकि यदि उपसर्ग नाम्यन्त होगा तो 'इस्वोऽपदे वा' १/२/२२ से हस्व होगा और यदि उपसर्ग अकारान्त होगा तो 'समानानां तेन दीर्घः' १/२/१ से दोनों मिलकर दीर्घ ही होगा । अतः घनिमित्तक दीर्घ का यहाँ कोई प्रयोजन नहीं है । इस प्रकार सूत्र के वैयर्थ्य को दूर करने के लिए तदन्तविधि करने में कोई दोष नहीं है ।
'संज्ञाविधौ न तदन्तविधिः' या 'संज्ञाविधौ प्रत्ययग्रहणे न तदन्तविधिः' स्वरूप न्याय सभी परिभाषासंग्रह में है तथा उत्तरपद के अधिकार में प्रत्ययग्रहण के विषय में ऐसा न्याय 'सत्यविधौ न तदन्तविधिः' (जैनेन्द्र परिभाषा-५५) और 'द्यावित्यधिकारे त्यग्रहणं स्वरूपग्रहणमेव (जै-६०) रूप में कहीं कहीं प्राप्त है।
॥७५॥ ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधिः ॥१८ ॥ 'नाम' का ग्रहण करके जो कार्य करने को कहा गया हो वही कार्य, वही 'नाम' जिसके अन्त में हो, ऐसे शब्दों( समास आदि )से नहीं होता है।
"निर्देशे सति' यहाँ अध्याहार समझ लेना ।
साक्षात् 'नाम' का ग्रहण करके, जो कार्य करने को कहा हो वही कार्य, वही शब्द यदि समास आदि शब्दसमुदाय के अन्त में आया हो तो अर्थात् वही 'नाम' जिसके अन्त में है, ऐसे समास आदि से नहीं होता है। उदा. 'सूत्रप्रधानो नडः, सूत्रनडः तस्य अपत्यम्' । यहाँ 'अत इञ्' ६/१/ ३१ से 'इञ्' प्रत्यय होगा और 'अनुशतिकादि' होने से 'अनुशतिकादीनाम्' ७/४/२७ से उभयपद के आध स्वर की वृद्धि होगी और 'सौत्रनाडिः' शब्द होगा । यहाँ 'सूत्रनडः' शब्द से 'नडादिभ्य आयनण' ६/१/५३ से 'आयनण' प्रत्यय नहीं होगा।
__यहाँ शंका होती है कि यहाँ इस न्याय की क्या आवश्यकता है? क्यों कि 'सूत्रनड' शब्द 'नडादि' शब्द से भिन्न है, अत: 'आयनण् की प्राप्ति ही नहीं है । उसका उत्तर इस प्रकार है । जैसे 'गवेन्द्र' शब्द में 'इन्द्र' शब्द पर में होने पर 'इन्द्रे' १/२/३० से 'गो' के 'ओ' का 'अव' आदेश होता है, वैसे 'गवेन्द्रयज्ञ' शब्द में भी 'इन्द्रयज्ञ' शब्द पर आने पर 'गो' के 'ओ' का 'अव' आदेश होता है । यहाँ 'इन्द्रयज्ञ' शब्द में 'इन्द्र' रूप शब्दावयव के प्राधान्य की विवक्षा की गई है।
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