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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ७५)
२११ प्रतिप्रसव इस प्रकार होता है - 'द्वारे नियुक्तः' वाक्य में 'तत्र नियुक्ते' ६/४/७४ से 'इकण्' प्रत्यय होने पर 'दौवारिकः' होता है । यहाँ जैसे 'द्वारादेः' ७/४/६ से केवल 'द्वार' शब्द के वकार से पूर्व औकार होता है, वैसे 'द्वारपालस्यापत्यं दौवारपालिः' प्रयोग में भी 'द्वार' शब्द जिस की आदि में है ऐसे 'द्वारपाल' स्वरूप शब्द समुदाय में भी वकार से पूर्व औकार इष्ट है और वह अवयवप्राधान्य की विवक्षा से सिद्ध हो सकता था, किन्तु 'ग्रहणवता नाम्ना न तदादिविधिः' न्याय से उसका निषेध होने से नहीं होगा । अतः 'द्वार' इत्यादि शब्द में तदादिविधि होती है । उसका ज्ञापन करने के लिए
और 'न्यग्रोध' शब्द में तदादिविधि नहीं होती है, किन्तु अकेले 'न्यग्रोध' शब्द के यकार से पूर्व ऐकार होता है, ऐसा कहा । इस प्रकार द्वार इत्यादि शब्द में तदादिविधि होती है, उसका ज्ञापन करने के लिए 'न्यग्रोधस्य केवलस्य' ७/४/७ सूत्र किया है।
'न्यग्रोधस्य केवलस्य' ७/४/७ सूत्र का अर्थ इस प्रकार है :- जित् णित् प्रत्यय पर में होने पर अकेले 'न्यग्रोध' शब्द के यकार से पूर्व ऐकार होता है । उदा. 'न्यग्रोधस्य विकारो दण्डः, नैयग्रोधो दण्डः' । अकेले 'न्यग्रोध' शब्द को क्यों ? तो 'न्यग्रोधमूले भवाः न्याग्रोधमूला: शालयः।'
भावार्थ इस प्रकार है :- 'द्वार' इत्यादि में 'तदादिविधि' आचार्यश्री को इष्ट है किन्तु 'न्यग्रोध' शब्द के लिए इष्ट नहीं है । यदि 'ग्रहणवता नाम्ना न तदादिविधिः' न्याय न होता तो 'न्यग्रोध' शब्द को 'द्वार' इत्यादि शब्दों के साथ ही कहकर, ऐसा कहा होता कि 'द्वार' इत्यादि शब्दों को अवयवप्राधान्य की विवक्षा में, उससे तदादिविधि होती है किन्तु 'न्यग्रोध' शब्द से 'नानिष्टार्था शास्त्रप्रवृत्तिः' न्याय से, उसमें अवयवप्राधान्य की विवक्षा न करने पर, उससे 'तदादिविधि' नहीं होती है अर्थात् केवल 'न्यग्रोध' शब्द से ही उसके य से पूर्व 'ऐ' होता है, किन्तु 'न्यग्रोध' शब्द जिसके आदि में है ऐसे शब्दसमुदाय अर्थात् समास इत्यादि में 'य' से पूर्व 'ऐ' नहीं होगा और इस प्रकार सब प्रयोग सिद्ध हो सकते हैं तथापि आचार्यश्री ने, ऐसा नहीं किया, उसका कारण यही है कि इस प्रकार की विवक्षा तब ही सफल होती है कि जब उसका बाधक कोई न्याय होता। किन्तु यहाँ 'ग्रहणवता नाम्ना न तदादिविधिः' न्याय होने से केवल 'न्यग्रोध' शब्द सम्बन्धित जो ऐकारविधि इष्ट है, वही सिद्ध होगी किन्तु 'द्वार' इत्यादि शब्द में तदादिविधि होगी ही, ऐसा किसी भी प्रकार से बताना चाहिए, ऐसा विचार करके, उसका ज्ञापन करने के लिए ही आचार्यश्री ने 'न्यग्रोधस्य केवलस्य' ७/४/७ सूत्र किया है।
___अतः इस प्रकार ज्ञापन होता है कि जो ऐकार विधि केवल 'न्यग्रोध' शब्द से होती है, वही विधि 'द्वार' इत्यादि शब्द में तदादिविधि अर्थात् 'द्वार' इत्यादि शब्द जिसकी आदि में हैं वैसे शब्दसमुदाय/समास इत्यादि में भी होती है और इस प्रकार द्वार' इत्यादि शब्द में तदादिविधि होती है, उसका ज्ञापन करने के लिए जो 'न्यग्रोधस्य केवलस्य' ७/४/७ सूत्र किया, वह इस न्याय की आशंका से ही, किन्तु इस न्याय का ऐसा साक्षात् पाठ कहीं भी प्राप्त होता न होने से, उसे पृथक् बताया नहीं है।
इस न्याय की विशेष चर्चा इस प्रकार है :- 'नडादिभ्य आयनण्' ६/१/५३ से 'सूत्रनङ'
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