________________
२१०
न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) उदा. 'योगक्षेमौ करोति इति शीला योगक्षेमकरी ।' यहाँ 'क्षेम' शब्द, 'योगक्षेम' समास के अन्त में आया हुआ है । अतः 'क्षेमप्रियमद्रभद्रात् खाण' ५/१/१०५ से 'क्षेम' स्वरूप उपपद से पर आये हुए 'कृ' धातु से होनेवाले 'ख' और 'अण्' प्रत्यय नहीं होंगे, किन्तु ‘हेतुतच्छीलानुकूले ऽशब्द श्लोक-कलह-गाथा-वैर-चाटु-सूत्र-मन्त्रपदात्' ५/१/१०३ से 'ट' प्रत्यय ही होगा । यदि 'ख' और 'अण्' प्रत्यय होते तो 'योगक्षेमंकरा, योगक्षेमकारी' जैसे अनिष्ट रूप होते, वे नहीं होते हैं ।
इस न्याय का ज्ञापन 'नग्नपलितप्रियान्धस्थूलसुभगाढ्यतदन्ताच्ळ्यर्थेऽच्वेर्भुव: खिष्णुखुकऔ' ५/१/१२८ में स्थित 'अन्त' शब्द से होता है । 'अनग्नो नग्नो भवति इति नग्नंभविष्णुः नग्नंभावुकः' में जैसे 'खिष्णु' और 'खुकञ्' प्रत्यय हुए हैं। वैसे 'अननग्नो अनग्नो भवति इति अनग्नंभविष्णुः, अनग्नंभावुकः' इत्यादि प्रयोग में भी 'खिष्णु' और 'खुकञ्' प्रत्यय करने के लिए 'नग्नपलितप्रियान्ध'- ५/१/१२८ सूत्र में 'अन्त' शब्द का ग्रहण किया है। यदि 'उपपदविधिषु न तदन्तविधिः' न्याय न होता तो 'अनग्नंभविष्णुः अनग्नंभावुकः' इत्यादि प्रयोग में भी 'नग्न' शब्द की प्रधानता की विवक्षा से ही 'खिष्णु' ओर 'खुकञ्' प्रत्यय होनेवाले ही थे तो फिर उसके लिए सूत्र में 'अन्त' शब्द क्यों रखा ? किन्तु 'नग्नपलितप्रियान्ध'- ५/१/१२८ सूत्र में 'अन्त' शब्द का ग्रहण किया उससे सूचित होता है कि 'उपपदविधिषु न तदन्तविधिः' न्याय भी है।
किन्त इसी 'उपपदविधिष...' न्याय 'ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधिः' न्याय में ही समाविष्ट हो जाता है क्यों कि उपपदविधि में उपपद के 'नाम' ग्रहण द्वारा ही कार्य कहा गया है और उपपद भी 'नाम' ही है।
और 'ग्रहणवता नाम्ना न तदादिविधिः' न्याय भी व्याकरणशास्त्र में उदाहरण और ज्ञापक के साथ देखने को मिलता है । वह इस प्रकार :
उणादि सूत्र से निष्पन्न 'न्यङ्क' शब्द में जब अव्युत्पत्ति पक्ष का आश्रय करेंगे तब 'न्यकोरिदम (मृगविशेषस्येदम् )' अर्थ में 'अण्' प्रत्यय होगा और 'नैयङ्कवम्' तथा 'न्याङ्कवम्' रूप होंगे । यहाँ जैसे 'न्यङ्क' शब्द में 'न्यङ्कोर्वा' ७/४/८ से 'न्यङ्क' शब्द के यकार से पूर्व ऐकार विकल्प से हुआ है, वैसे 'न्यकचर्मन्' शब्द से 'न्यकचर्मणः इदम्' अर्थ में अवयव प्राधान्य की विवक्षा में भी 'न्यकोर्वा' ७/४/८ से उसके यकार से पूर्व विकल्प से ऐकार नहीं होगा क्यों कि यह न्याय उसका निषेध करता है।
'ग्रहणवता नाम्ना न तदादिविधिः' न्याय का ज्ञापन 'न्यग्रोधस्य केवलस्य' ७/४/७ से होता है। इसी सूत्र से जैसे 'द्वारादेः' ७/४/६ सूत्र में आये हुए 'द्वार' इत्यादि शब्द के 'व' कार से पूर्व 'औ' कार होता है, वैसे 'द्वार' शब्द जिसके आदि में है, ऐसे शब्द के अवयव स्वरूप 'द्वार' इत्यादि के वकार से पूर्व 'औ' कार होता है, वही सिद्ध होता है । वह इस प्रकार है । 'द्वारादेः' ७/४/६ सूत्र में 'द्वार' इत्यादि शब्दों के अवयवप्राधान्य की विवक्षा करने पर तदादिविधि की प्राप्ति होती ही है । तथापि इस न्याय से उसका निषेध होने से उसका प्रतिप्रसव करने के लिए 'न्यग्रोधस्य केवलस्य' ७/४/७ सूत्र किया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org