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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) शब्द से 'आयनण्' प्रत्यय होने की प्राप्ति है, उसे दूर करने के लिए यह न्याय है, ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी और श्रीहेमहंसगणि, दोनों मानते हैं किन्तु उसकी प्राप्ति वे दोनों भिन्न भिन्न प्रकार से बताते हैं । श्रीहेमहंसगणि कहते है कि 'सत्रनड' शब्द 'नडादि' से अन्य होने से 'आयनण' होनेवाला ही नहीं है, तो उसका निषेध करने के लिए इस न्याय की क्या आवश्यकता है ? ऐसी शंका करके, वे स्वयं ही उत्तर देते हैं कि जैसे 'गवेन्द्र' में 'इन्द्र' शब्द पर में हो तो 'गो' के 'ओ' का 'अव' आदेश होता है, वैसे 'गवेन्द्रयज्ञ' में भी इन्द्ररूप अवयवप्राधान्य की विवक्षा से ही 'इन्द्रे' १/२/३० से 'गो' के 'ओ' का 'अव' आदेश होता है, वैसे यहाँ सूत्रनड' शब्द में अवयवप्राधान्य की विवक्षा से 'आयनण्' प्रत्यय होने की प्राप्ति है।
जबकि श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि 'नडादिभ्य आयनण' ६/१/५३ के अर्थानुसार 'नड' इत्यादि नाम से आयनण् प्रत्यय होता है। अब 'विशेषणमन्तः' ७/४/११३ परिभाषा की प्रवृत्ति करने पर 'नड' इत्यादि शब्द जिसके अन्त में है ऐसे 'सूत्रनड' इत्यादि शब्द से 'आयनण' प्रत्यय की प्राप्ति होती है और केवल 'नड' शब्द से 'आद्यन्तवदेकस्मिन्' न्याय द्वारा 'आयनण' प्रत्यय सिद्ध हो सकता है। इस प्रकार 'सूत्रनड' शब्द से 'आयनण्' प्रत्यय की प्राप्ति है, किन्तु ऊपर बताया उसी तरह 'नड' स्वरूप अवयवप्राधान्य की विवक्षा से 'आयनण' प्रत्यय की प्राप्ति बताना उचित नहीं है। इसके सबूत में वे कहते हैं कि सिद्धहेमबृहवृत्ति में 'मालेषीकेष्टकस्यान्तेऽपि भारितूलचिते' २/४/१०२ की वृत्ति के 'इदमेव ज्ञापकं ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधिः' शब्दगत 'इदमेव' शब्द की व्याख्या स्वरूप लघुन्यासकार का मत बताते हैं । वह इस प्रकार है । 'माला' इत्यादि शब्द नाम के विशेषण है। अतः 'विशेषणमन्तः' ७/४/११३ से तदन्त नाम का भी ग्रहण हो जाता था और अकेले 'माला' इत्यादि शब्द का ग्रहण 'आद्यन्तवदेकस्मिन्' न्याय से हो जाता है तथापि 'अन्तेऽपि' शब्द रखा वह इस न्याय का ज्ञापन करता है । यही बात लघुन्यासकार की है।
. अब श्रीहेमहंसगणि की बात के बारे में विचार करें । श्रीहेमहंसगणि इस न्याय के न्यास में न्यायवृत्ति के 'इन्द्ररूपावयवप्राधान्यविवक्षया' शब्द की चर्चा करते हुए कहते हैं कि जिस शब्द का सूत्र में 'नाम' पूर्वक ग्रहण हो, वही शब्द, जिस समास इत्यादि समुदाय के आदिरूप या अन्तरूप अवयव के रूप में हो, तो वही समुदाय भी उसी अवयव के योग से वैसे स्वरूपवाला माना जाता है। उदा. शुक्ल रूप अवयव के योग में 'स्तंभ' भी शुक्ल ही माना जाता है। यहाँ तक की उनकी बात सही है किन्तु आगे जो बताया कि 'इन्द्रे' रूप अवयव के योग से 'इन्द्रयज्ञ' शब्द भी वैसा माना जायेगा । अतः 'गो' के 'ओ' का 'अव' आदेश हो सकेगा । 'इन्द्रे' १/२/३० सूत्र के संदर्भ में उनकी यही बात उचित नहीं लगती है, इसके बारे में आगे चर्चा की जायेगी । किन्तु इस प्रकार 'सूत्रनड' शब्द में 'नड' रूप अवयव के प्राधान्य की विवक्षा हो तब 'नडादिभ्य आयनण' ६/१/ ५३ से 'आयनण' प्रत्यय होने की प्राप्ति है या हो सकता है।
अब 'इन्द्रे' १/२/३० सूत्र सम्बन्धित 'गवेन्द्रयज्ञ' में स्थित 'इन्द्रयज्ञ' शब्द में 'इन्द्र' रूप अवयवप्राधान्य की विवक्षा, श्रीहेमहंसगणि ने की है, जबकि 'आद्यन्तवदेकस्मिन्' न्याय की वृत्ति
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