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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण )
दूसरी शंका यह पैदा होती है कि, इस प्रकार, इस न्याय का कोई फल ही न हो तो उसके 'अश्चः ' पद का त्याग करना चाहिए, अर्थात् केवल 'ड्नः सः त्सः' सूत्ररचना करनी चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं हो सकता है क्योंकि 'आचार्याः कृत्वा न निवर्तन्ते' न्याय भी है ।
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किसीको यहाँ शंका होती है कि 'श्च्योतति' इत्यादि में सकार का शकार आदेश करना और बाद में 'अश्चः' कहकर उसे दन्त्य 'स' सम्बन्धित कार्य करने का निषेध करना उसके स्थान पर पाठ में ही तालव्य श कह देना चाहिए जिससे प्रक्रिया लाघव भी हो किन्तु ऐसा करना उचित प्रतीत नहीं होता है क्योंकि ऐसा करने से 'मधु श्च्योतति इति क्विप्' करने से 'मधुश्च्युत्' होगा और 'तं आचष्टे' विग्रह करके 'णिच्' प्रत्यय होने पर ' त्र्यन्त्यस्वरादेः ' ७/४/४३ से अन्त्यस्वरादि का लोप होगा बाद में पुन: क्विप् करने पर 'णिच्' का लोप होगा, और 'सि' प्रत्यय होगा, उसका भी लोप होने पर 'चोऽशिति' ४/३/८१ से 'य' का लोप होगा। बाद में 'संयोगस्यादौ स्कोर्लुक्' २/१/८८ से श्च' के 'श्' का 'स' मानकर लोप करने पर 'चजः कगम्' २/१/८६ से 'च' का 'क' करने पर 'मधुक् ' रूप होगा किन्तु यदि तालव्य 'श' का ही धातुपाठ में पाठ किया जायेगा तो 'मधुक्' के स्थान पर 'मधु' रूप होगा जो अनिष्ट है । अतः धातुपाठ में सोपदेश धातु करना आवश्यक है । और इस न्याय का ज्ञापक न हो तो 'स' के आदेश 'श' को सकारापदिष्ट कार्य हो या न हो, इसकी आशंका बनी ही रहती है, उसे दूर करने के लिए 'अश्चः ' शब्द द्वारा 'श्च' में स्थित 'श' का वर्जन किया है और वही वर्जन ही इस न्याय का ज्ञापक बनता है, यही बात सिद्धहैमबृहद्वृत्ति में बतायी गई है ।
न्यासकार ने ऊपर बताया उसी प्रकार 'दन्त्यापदिष्टं कार्यं तालव्यस्य भवति परं दन्त्यस्थाननिष्पन्नस्य न तु सर्वस्य' न्याय बताया है और उसके ज्ञापक के रूपमें उपदेश अवस्था में किये गए दंत्यपाठ को ही बताया है । वे कहते हैं कि इस प्रकार 'श्च' के वर्जन के स्थान पर, पाठ में ही तालव्य 'श' का उपदेश करना चाहिए। किन्तु यदि यह न्याय न होता तो, दन्त्यपाठ निरर्थक बनता है । और दन्त्यपाठ का इस न्याय को छोड़कर अन्य कोई प्रयोजन भी नहीं है ।
इन दोनों मान्यताओं का समन्वय करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि दोनों की मान्यताएँ सही हैं और दोनों ज्ञापक भी उचित हैं ।
श्रीमहंसगणि ने न्यास में दूसरी भी एक बात बतायी है कि साहित्य के क्षेत्र में कवियों और आलंकारिको को श्लेष अलंकार में 'श' और 'स' समान मान्य है अर्थात् जब एक ही शब्द के दो भिन्न भिन्न अर्थ करने हों तब स ( दन्त्य) को श (तालव्य) और तालव्य 'श' को दन्त्य 'स' माना जाता है ।
उदा.
आदौ धनभवे येन घृतमेधायितं तथा
जज्ञे यथोर्वीशस्य श्री श्रीनाभेयः स वः श्रियै ॥
यहाँ उर्वीशस्य श्री अर्थात् राजा की शोभा / लक्ष्मी, उर्वी अर्थात् बड़ी / महा सस्यश्री अर्थात् धान्य की संपत्ति स्वरूप शोभा ।
यह न्याय भी अन्य किसी भी परिभाषासंग्रह में संगृहीत नहीं है ।
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