________________
२००
। न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) लक्ष्यैकचक्षुष्कवैयाकरण के लिए सुज्ञेय है, तथापि यह बात अपने/हमारे जैसे लक्षणैकचक्षुष्क लोक
लिए दुर्जेय होने से और आचार्यश्री ने स्वयं, वैसा अर्थ नहीं कहा है, अतः इस अंश का अन्य जापक खोजना चाहिए या 'दीर्घाश' के ज्ञापक द्वारा ही 'एकदेशानुमत्या' संपूर्ण न्याय का ज्ञापन होता है, ऐसा मानना चाहिए ।
हे बटो ३ एहि ' इत्यादि प्रयोग में इस न्याय के अनित्यत्व की कल्पना की गई है किन्तु वह सही नहीं है । श्रीहेमहंसगणि ने न्यास में उसका खंडन करते हुए कहा है कि 'हे बटु + सि ', स्थिति में, 'बटु' के 'उ' का 'दूरादामन्त्र्यस्य-' ७/४/९९ पर होने से प्रथम प्लुत होगा और बाद में 'हस्वस्य गुणः' १/४/४१ से 'उ' का गुण होगा, किन्तु यह बात सही नहीं है । गुण प्रथम होता है और प्लुतविधि बाद में होगी क्योंकि 'हस्वस्य गुणः' १/४/४१ से होनेवाला गुण, केवल आमन्त्र्यनिमित्तक है, अत: वह अन्तरङ्ग कार्य है , जबकि प नुतविधि 'दूरादामन्त्र्य' निमित्तक है, अतः वह बहिरङ्ग है । अत एव परादन्तरङ्ग' न्याय से गुण ही प्रथम होगा, किन्तु प्लुतविधि प्रथम नहीं होगी। अतः इस प्रयोग के लिए यह न्याय अनित्य है ऐसा न व हना चाहिए।
यह न्याय अन्य किसी भी परिभाषाग्रंथ में उपलब्ध नहीं है । अतः इस न्याय का स्वीकार किया जाय या नहीं, यह एक प्रश्न है। श्रीलावण्यसूरिजी इस न्याय का पूर्णतः अस्वीकार करते हैं । इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं कि इस न्याय का कोई फर न नहीं है और इसका कोई ज्ञापक भी नहीं है । हुस्वांश में जो फल बताया गया है कि 'हे राज ३ निह' में 'हस्वान्ङणनो द्वे' १/३/ २७ से 'न' के द्वित्व का निषेध तथा 'प्लुताद्वा' १/३/२९ सूत्र की सार्थकता के लिए इस न्याय की कल्पना की गई है, परिणामतः 'हे गो ३ त्त्रात, हे गो ३ बात' इस प्रकार 'त्' का विकल्प से द्वित्व होता है। यही कार्य इस न्याय के बिना भी सिद्ध हो सकता है । वह इस प्रकार है।
'हे राज ३ निह' प्रयोग में प्रथम 'राजन्' का स्वर 'अ' प्लुत होगा क्योंकि प्लुतविधि, पदान्तर (अन्य पद सम्बन्धित ) स्वरनिमित्तक द्वित्व की अपेक्षा से अन्तरङ्ग है, जबकि द्वित्व बहिरङ्ग कार्य है। अतः प्लुतविधि प्रथम होने पर, ह्रस्व नहीं मिलेगा और द्वित्व नहीं होगा। ।
इस प्रयोग में ऐसी शंका न करनी चाहिए कि भूतपूर्वकस्तद्वदुपचार:' न्याय से, ह्रस्व मानकर द्वित्व की प्राप्ति होती है, उसे रोकने के लिए यह न्याय है । क्योंकि कोई भी न्याय इष्ट प्रयोग की सिद्धि के लिए ही होता है, अतः यदि न्याय से अनिष्ट प्रयोग सिद्ध होता हो, तो न्याय की प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए । यहाँ यदि इस 'भूतपूर्वकस्तद्वदुपचारः' न्याय की प्रवृत्ति करेंगे तो 'देवानिह' प्रयोग में भी उसकी प्रवृत्ति करके 'न' का द्वित्व करने की आपत्ति आयेगी और अत एव 'हस्वान ङणनो द्वे' १/३/२७ सूत्र के स्वोपज्ञशब्दमहार्णवन्यास में भी उन्होंने कहा है कि 'हे राज ३ न् इह' में 'राजन्' शब्द से आमन्त्र्य में 'सि' का लोप करने के बाद 'नामन्त्र्ये' २/१/९२ से 'न्' का लोप नहीं होगा। बाद में प्लुतविधि अन्तरङ्ग तथा पर होने से प्रथम प्लुत होगा ओर हुस्व का अभाव होने से द्वित्व नहीं होगा।
यहाँ आचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने स्वयं इस न्याय का आश्रय नहीं किया है। और इस न्याय के दीर्घाश के ज्ञापक 'प्लुताद्वा' १/३/२९ के बारे में विचार करने पर लगता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org