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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण )
करने पर भी वहाँ आत्मनेपद की अप्राप्ति हो जाती है और निःसंकोच परस्मैपद होता है ।
'भट्टि' काव्य के टीकाकार जयमंगलाकार कहते हैं कि अनु शब्द के सामर्थ्य से ही 'कृभू' और 'अस्' धातु के परोक्षान्त रूपों का आमन्तयुक्त धातु से अव्यवहित पर में ही प्रयोग होना चाहिए | अतः वे भट्टिकाव्य के 'उक्षांप्रचक्रुर्नगरस्य मार्गान्' के स्थान पर 'उक्षान् प्रचक्रुर्नगरस्य मार्गान्' तथा 'बिभरांप्रचकारासौ' के स्थान पर 'प्रबिभरांचकारासौ' पाठों की कल्पना करते हैं ।
'कृञ्चानु प्रयुज्यते लिटि' [ पा. सू. ३/१/४० ] के महाभाष्य से एक बात स्पष्ट होती है कि भाष्यकार ने उपसर्ग को केवल धातु के अर्थ के द्योतक ही माने हैं, अतः उपसर्ग का, धातु से भिन्न कोई अर्थ नहीं है, अतः उपसर्ग में व्यवधायकत्व नहीं है ।
और महाभाष्य में कहा है कि 'विपर्यासनिवृत्त्यर्थं, व्यवहितनिवृत्त्यर्थञ्च' इन दोनों वार्तिकों द्वारा 'तं पातयां प्रथममास पपात पश्चात् ' तथा 'प्रभ्रंशयां यो नहुषं चकार' इत्यादि व्यवहितत्वयुक्त और नारेश्चकार गणयामयमस्त्रपातान् इत्यादि विपर्यस्त प्रयोगों का व्यावर्तन किया है, तथापि ऐसे प्रयोग कवियों द्वारा किये गए होने से छन्दोवत् / छान्दस् प्रयोग कहकर इसके साधुत्व का स्वीकार किया है ।
यह न्याय सिद्धम परम्परा के 'न्यायसंग्रह' को छोड़कर कहीं भी उपलब्ध नहीं है और वास्तव में गद्यसाहित्य में ऐसे प्रयोग होते ही नहीं हैं। जो होते हैं, वे काव्य में ही होते हैं और कवि द्वारा प्रयुक्त ऐसे प्रयोग क्वचित् व्याकरण के नियम विरूद्ध भी होते हैं किन्तु काव्य के क्षेत्र में छन्दोभंग न हो, इसलिए ऐसी सामान्यतया छूट दी जाती है। जैसे कला / चित्रकला आदि के क्षेत्र में कलाकार निरंकुश होते हैं वैसे काव्य के क्षेत्र में कवि निरंकुश माने जाते हैं, अतः ऐसे प्रयोग व्याकरण की दृष्टि से साधु / अनुचित होने पर भी, उसका अनादर नहीं होता है और यही बात इस न्याय से सिद्ध की गई है । व्याकरण की दृष्टि से इस न्याय का कोई महत्व प्रतीत नहीं होता है ।
॥ ७० ॥ येन नाव्यवधानं तेन व्यवहितेऽपि स्यात् ॥ १३॥
जहाँ जिस वर्ण इत्यादि का अवश्य व्यवधान हो, वहाँ उसका व्यवधान होने पर भी तत्सम्बन्धित कार्य होता ही है ।
जहाँ, जो वर्ण इत्यादि, अवश्य व्यवधायक होते हों, किन्तु अव्यवधान का संभव ही न हो, वैसे प्रसंग में व्यवधान होने पर भी, तत्सम्बन्धित कार्य होता ही है । अप्राप्त कार्य की प्राप्ति कराने के लिए यह न्याय है । [ इस प्रकार अगले दोनों न्याय में जान लेना ]
उदा. 'चार्वी, गुर्वी, ' इत्यादि प्रयोग में स्वर और 'उ' कार के बीच एक व्यंजन का व्यवधान होने पर भी 'स्वरातो गुणादखरो: ' २/४/३५ से 'ङी' होगा ही, क्योंकि स्वर के पर में अव्यवहित 'उ' कार हो, ऐसा गुणवाचक शब्द एक भी प्राप्त नहीं है ।
इस न्याय का ज्ञापक 'स्वरादुतो गुणादखरो : ' २/४/३५ में 'स्वरादुतो' कहा है, वह है । स्वर
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