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द्वितीय वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. ७२ )
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निमित्तक होने से बहिरङ्ग है । अतः यदि लृत्वविधि प्रथम होगी तो द्वित्व होने के बाद पूर्व के का 'ऋतोऽत्' ४/१/३८ से 'अ' करने के लिए यह न्याय है ।
श्री लावण्यसूरिजी इस न्याय के बारे में कहते हैं कि केवल 'अचिक्लृपत्' जैसे शायद एक ही प्रयोग के लिए योगारम्भ ( नया सूत्र या नया न्याय) प्रयुक्त नहीं होता है । अतः ऐसे प्रयोग के लिए 'ऋतोऽत्' ४/१/३८ सूत्र में भी लृकार का भी ग्रहण किया होता तो 'दूरादामन्त्र्यस्य' ...७/ ४ / ९९ सूत्र में भी लृकार का ग्रहण आवश्यक नहीं रहता या पाणिनीय परम्परा की तरह 'ऋर लृलं कृपोऽकृपीटादिषु' २/३ / ९९ सूत्र असदधिकार में कह दिया होता तो, चल सकता था क्योंकि लृकार पर कार्य करते समय असद् हो जाता तो 'लू' को 'ऋ' मानकर उसका 'अ' निःसंकोच किया जा सकता और ऐसा करने पर, इस न्याय / बात के ज्ञापक के रुप में 'दूरादामन्त्र्यस्य'...७ / ४ / ९९ में लृकार का ग्रहण किया है, वही न करना होता ।
उस प्रकार उपर्युक्त प्रयोग की सिद्धि हो सकती है, तथापि वह आचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरिजी के वचन के खिलाफ है । अतः उसका अस्वीकार करना चाहिए क्योंकि आचार्यश्री ने स्वयं 'ऋर लृलं कृuisकृपीटादिषु' २/३ / ९९ तथा 'दूरादामन्त्र्यस्य ...७ / ४ / ९९ सूत्रों में इस न्याय का विधान किया है ।
दूसरी बात यह कि ये न्यायसूत्र, प्रत्येक व्याकरण में सर्वसामान्य हैं, ऐसा उन्होंने कहा है । अतः ऐसे न्याय की उनको कोई आवश्यकता न होने पर भी, अन्य परम्परा में यह न्याय है, ऐसा ज्ञापन करने के लिए 'ऋर लृलं'-२ / ३ / ९९ तथा 'दूरादामन्त्र्यस्य'....७/४ / ९९ सूत्रों में इस न्याय का कथन किया है, ऐसा समझना और वही उनको भी मान्य है ही ।
यदि इस न्याय का स्वीकार किया जाय तो 'ऋलृति ह्रस्वो वा' १/२/२ सूत्र में 'ऋ' और 'लू' दोनों के ग्रहण में व्यर्थता आती है । अतः इस न्याय को अनित्य मानना आवश्यक है । इस अनित्यता के फलस्वरूप 'गम्लं' आदि के षष्ठी बहुवचन में 'आम्' का 'नाम' आदेश होने पर 'हुस्वापश्च' १/४/३२ से दीर्घ लृकार होगा क्योंकि सिद्धहेम में दीर्घ लृकार भी माना गया है और 'गम्लुनाम्' आदि और 'प्रक्लृप्यमान' इत्यादि प्रयोग में ॠवर्ण से विहित णत्व विधि नहीं होगी । यद्यपि 'वर्णैकदेशोऽपि वर्णग्रहणेन गृह्यते' न्याय से 'लू' के व्यवधान के कारण णत्व विधि नहीं होगी, ऐसा कह दिया है, तथापि इस न्याय से संपूर्ण 'लू' वर्ण को 'ऋ' वर्ण मानकर जो णत्व विधि होनेवाली है, वह यह न्याय अनित्य होने से नहीं होगी ।
॥ ७२ ॥ सकारापदिष्टं कार्यं तदादेशस्य शकारस्यापि ॥ १५ ॥
सकार को उद्देश्य बनाकर कहा गया कार्य उसके आदेश शकार को भी होता है ।
'तदादेशस्य' शब्द द्वारा ज्ञात होता है कि यह पूर्वोक्त (५७ न्यायगत) 'भूतपूर्वकस्तद्वदुपचारः ॥' न्याय का ही प्रपंच/विस्तार है । अतः वस्तुतः जो सकार का आदेश रूप शकार है, वह 'भूतपूर्वक '.... न्याय से सकार ही माना जाता है । वही इस न्याय का तात्पर्यार्थ है ।
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