________________
१९४
न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण)
लिए अव्यवधायकत्व होता है । अत: 'मृदु' में स्थित पूर्व ऋ की मात्रा के समान मात्रा 'दु' की है। यहाँ अकेले 'उ' की भी एक मात्रा है और 'दु' की भी एक ही मात्रा मानी जाती है। अत: वह इस न्यायानुसार व्यवधान नहीं माना जायेगा। यदि दो व्यञ्जनों का व्यवधान आये तो डेढ मात्रायुक्त 'दु' माना जायेगा, तो वह अधिक मात्रायुक्त व्यवधान होने से अव्यवधान नहीं माना जायेगा।
॥ ७१॥ ऋकारापदिष्टं कार्यं लकारस्यापि ॥ १४ ॥ ऋकार से अपदिष्ट कार्य लकार को भी होता है ।
उदा. 'कृपौङ् सामर्थ्य ' धातु से 'सन्' प्रत्यय होने पर 'वृद्भ्यः स्यसनोः' ३/३/४५ से परस्मैपद में 'चिक्लुप्सति' होगा । यहाँ कृप् धातु के ऋ का लु निर्निमित्त होने से प्रथम 'ऋर लुलं कृपोऽकृपीटादिषु' २/३/९९ सूत्र से ल होगा, बाद में 'सन्यङश्च' ४/१/३ से द्वित्व होगा तब 'ऋतोऽत्' ४/१/३८ से 'ऋ' के स्थान पर हुए 'लु' का भी ‘अत्' आदेश होगा ।
इस न्याय का ज्ञापक 'दूरादामन्त्र्यस्य'..७/४/९९ सूत्र में 'ऋ' को छोड़कर अन्य स्वरों का प्लुतत्व करने का विधान करके पुनः 'लु' का ग्रहण किया है, वह है । क्योंकि इस न्याय से 'ऋ' का निषेध करने पर, 'लु' का भी निषेध हो जाता है किन्तु 'लु' को प्लुतविधि करनी होने से, इसका पुनः ग्रहण किया है।
यह न्याय चंचल है । अतः 'ऋतृति हूस्वो वा' १/२/२ में 'ऋ' और 'लु' दोनों का ग्रहण किया है । यह न्याय नित्य होता, तो केवल 'ऋति ह्रस्वो वा' सूत्र बनाया होता तो चल सकता ।
'दूरादामन्त्र्यस्य'-७/४/९९ सूत्र की वृत्ति में यह न्याय थोड़ी-सी भिन्न रीति से बताया गया है। उसमें 'ऋवर्णग्रहणे लवर्णस्यापि' कहा है, किन्तु लकार प्रायः कहीं भी प्रयुक्त नहीं पाया जाता है, अतः 'ऋर लुलं कृपोऽकृपीटादिषु' २/३/९९ सूत्र के न्यास में 'ऋकारापदिष्टं लकारस्यापि' पाठ प्राप्त होने से, यहाँ ऐसा कहा है।
यह न्याय सिद्धहेम व्याकरण को छोड़कर अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं है, क्योंकि अन्य वैयाकरणों ने ऋवर्ण और लवर्ण की परस्पर सवर्ण संज्ञा मानी है, अतः उनके मत से ऋवर्ण को उद्देश्य बनाकर कहा गया कार्य लवर्ण से स्वाभाविक ही हो जाता है, जबकि सिद्धहेम की परम्परा में ऋवर्ण और लवर्ण के स्थान भिन्न भिन्न होने से स्व संज्ञा नहीं की है, अत एव लकार के स्थान में होनेवाले आदेशों के ऋवर्ण से भिन्न करके बता दिये हैं । उदा. अवर्णस्येवर्णादिनैदोदरल् १/२/ ६ से लु वर्ण का 'अल्' आदेश किया है । और 'लुत्याल् वा' १/२/११, में लु वर्ण का वृद्धि रूप 'आल्' आदेश किया है। सिद्धहेम की परम्परा में 'लु' का दीर्घ है अर्थात् लकार का भी अस्तित्व है, अत: 'क्लृ + लकारः' की सन्धि 'क्लृकार:' भी होती है किन्तु अन्य व्याकरणानुसार अर्थात् पाणिनीय इत्यादि में 'ऋ' और लु वर्ण की स्व संज्ञा द्वारा जो कार्य होते हैं, वे कार्य इस व्याकरण में अन्य विशेष प्रकार से सिद्ध किये हैं । अतः स्व संज्ञा का कोई फल नहीं है तथापि 'अचिक्लृपत्' जैसे प्रयोग में तृत्वविधि अनिमित्तक और अन्तरङ्ग होने से प्रथम होगी, और द्वित्व इत्यादि प्रत्यय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org