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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ७०)
१९१ से पर जो 'उ' कार, तदन्त गुणवाचक शब्द से स्त्रीलिङ्ग में विकल्प से ङी प्रत्यय होता है, किन्तु 'खरु' शब्द से नहीं होता है। यदि यह न्याय न होता तो स्वर से पर, अव्यवहित उकार हो, ऐसा गणवाचक एक भी शब्द न होने से, यही सूत्र व्यर्थ होता है या असंगत है तथापि ऐसा सूत्र बनाया, उससे सूचित होता है कि स्वर और उ के बीच, अवश्य प्राप्त एक व्यंजन का व्यवधान, इस न्याय के बल से, व्यवधायक नहीं होता है, ऐसे आशय से ही ‘स्वर के पर जो उकार' ऐसा जो कथन किया है वह असंगत नहीं माना जायेगा।
और 'स्वरादुतो गुणादखरोः' २/४/३५ में 'खरु' शब्द का जो वर्जन किया है वह भी इस न्याय का ज्ञापक है क्योंकि यहाँ स्वर से पर, जो उकार, वही उकार जिसके अन्त में हो ऐसे गुणवाचक शब्द से स्त्रीलिङ्ग में ङी प्रत्यय विकल्प से होता है, ऐसा कहने से ही 'खरू' शब्द से की प्रत्यय होने की प्राप्ति ही नहीं है क्योंकि 'खरु' शब्द में स्वर 'अ' और अन्त्य 'उ' के बीच 'र' का व्यवधान है, तथापि 'खरु' शब्द का वर्जन किया, उससे सूचित होता है कि स्वर और उकार के बीच एक व्यंजन का व्यवधान तो अवश्य होता ही है, अतः इस न्याय के कारण, उसी एक व्यंजन का व्यवधान, व्यवधान स्वरूप नहीं माना जाता है तथा 'खरु' शब्द में भी स्वर और 'उ' के बीच एक ही व्यंजन का व्यवधान होने से, यहाँ भी 'डी' की प्राप्ति का प्रसंग उपस्थित होगा, ऐसी आशंका से 'खरु' का वर्जन किया गया है।
_ 'येन नाव्यवधानं' अर्थात् जिसके द्वारा या जहाँ अवश्य व्यवधान आता ही हो वहाँ वही व्यवधान, व्यवधान नहीं माना जाता है, ऐसा क्यों ? जहाँ अव्यवधान का संभव हो, वहाँ व्यवधान, व्यवधान माना ही जाता है । उदा. 'ज्युंङ्गतौ' धातु से 'णिग्' और वही णिगन्त 'ज्युंङ्' धातु से 'सन्' प्रत्यय होने पर 'जुज्यावयिषति' रूप होगा । यहाँ 'ज्यु' धातु का द्वित्व होने के बाद पूर्व 'जु' में स्थित 'उ' और निमित्तस्वरूप अवर्णान्त अन्तस्था, 'ज्या' में स्थित 'या' के बीच 'ज' का व्यवधान है, अतः ‘ओर्जान्तस्थापवर्गेऽवणे' ४/१/६० से 'जु' के 'उ' का 'इ' नहीं होगा क्योंकि जहाँ अव्यवहित का संभव ही न हो, वहाँ व्यवहित का आदर किया जाता है, अन्यत्र नहीं, किन्तु यहाँ 'ओर्जान्तस्थापवर्गेऽवणे' ४/१/६० सूत्र से होनेवाले कार्य के लिए 'यियविषति' इत्यादि प्रयोग में अव्यवहित 'अवर्णान्त अन्तस्था' का संभव होने से 'जुज्यावयिषति' में स्थित व्यवहित 'अवर्णान्त अन्तस्था' का ग्रहण नहीं होता है ।
इस न्याय की अनात्यन्तिकता/अनित्यता प्रतीत नहीं होती है।
श्रीहेमहंसगणि 'स्वर से अव्यवहित पर में उ हो, ऐसा गुणवाचक शब्द एक भी नहीं है' कथनगत गुणवाचक शब्द के बारे में टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि 'तितउ' शब्द में स्वर से अव्यवहित पर में 'उ' है किन्तु वह द्रव्यवाचक है, अतः उसका यहाँ ग्रहण न हो, इसके लिए गुणवाचक कहा है।
इस न्याय में दो ज्ञापक बताये गये हैं । १. स्वरादुतो गुणादखरोः २/४/३५ में 'स्वरादुतो' कहा वह और २. 'अखरो:' पद से 'खरू' शब्द का वर्जन किया वह । वैसे तो ये दोनों ज्ञापक सही/
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