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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ६८)
१८३ २/३/७९ सूत्र में आती तो 'दुर्' को छोड़कर अन्य उपसर्ग और 'अन्तर्' शब्द स्थित 'र, ष' और 'ऋ' वर्ण से पर आये हुए 'नि' का 'णि' उसके बाद आये हुए ङ्मा, दा, पत - इत्यादि धातु का द्वित्व होने पर भी निर्विवाद/नि:संकोच होता, किन्तु ऐसा नहीं किया है , वही ज्ञापन करता है कि 'स्वाङ्गमव्यवधायि' न्याय होने से, द्वित्वभूत धातु का पूर्व भाग उसी धातु का अङ्ग होने से, वह 'प्रनि'
और धातु के बीच व्यवधायक नहीं होगा और जैसे 'प्रणिपतति' में 'नि' का 'णि' होता है, वैसे 'प्रणिपपात' में निर्विघ्न 'नि' का 'णि' होगा।
स्वाङ्ग हो, वही अव्यवधायि बनता है, किन्तु पराङ्ग हो तो उसका व्यवधान, व्यवधान ही माना जाता है।
__उदा. 'संचस्कार', यहाँ 'च', 'कृ' धातु का अङ्ग बनेगा, अतः ऊपर बताया उसी तरह सम् और क के बीच होनेवाले 'स्सट' आगम के लिए व्यवधान स्वरूप नहीं होगा क्योंकि वही कार्य कृनिमित्तक है , किन्तु ‘स्सटि समः' १/३/१२ से जब 'सम्' के 'म्' का 'स्' करना हो तब और 'लुक्' १/३/१३ से जब 'सम्' के 'म्' का लोप करना हो, तब द्वित्व से उत्पन्न 'च' 'स्सट्' या 'सम्' दो में से किसीका अपना स्वाङ्ग नहीं होने से 'म्' का सकार और 'म्' का लोप करते समय व्यवधान माना जायेगा । अत: 'सम्' के 'म्' का 'स्' और लोप नहीं होगा।
यह न्याय अनित्य होने से षत्व विधि के 'वेः स्कन्दोऽक्तयोः' २/३/५१ सूत्र में द्वित्व सहित स्कन्द धातु का ग्रहण नहीं किया होने से विचिस्कन्त्सति' इत्यादि प्रयोग में षत्व नहीं होगा ।
इस न्याय के व्यभिचारीत्व/अनित्यता का प्रतिष्ठापक/ज्ञापक 'प्रतितष्ठौ' इत्यादि प्रयोग में स्वाङ्ग स्वरूप द्वित्व का व्यवधान होने पर भी षत्व करने के लिए 'स्था-सेनि-सेध-सिच-सञ्जां द्वित्वेऽपि' २/३/४० में 'द्वित्वेऽपि' कहा, वह है । यहाँ 'स्था' इत्यादि का द्वित्व होने पर भी, उसका द्वित्वभूत स्वाङ्ग क्वचित् इस न्याय की अनित्यता के कारण व्यवधान स्वरूप होने पर भी इसी सूत्र से उसके 'स' का 'ष' होगा ही उसका ज्ञापन करने के लिए 'द्वित्वेऽपि' कहा है।
पूर्व के 'आगमा यद्गुणीभूता:'-न्याय का ही यह विशिष्ट प्रकार/प्रपंच/विस्तार है । पूर्व न्याय में आगम को नाम या धातु स्वरूप प्रकृति के अङ्ग मान लेने पर वे व्यवधायक नहीं होते हैं
और यहाँ द्वित्व इत्यादि से उत्पन्न मूल धातु सम्बन्धित किन्तु धातु से भिन्न अधिक वर्ण या वर्णसमुदाय स्वाङ्ग बनता है और वह अव्यवधायि होता है ।
इस न्याय के ज्ञापक के रूप में 'नेर्मादा-२/३/७९ और 'द्वित्वेऽप्यन्ते' -२/३/८१ सूत्रों के स्थापना/रचनाक्रम को बताया है । इसके बारे में टिप्पणि करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि यह न्याय कोई अपूर्व कथन नहीं है, किन्तु परोक्षा इत्यादि में धातु का द्वित्व होने के बाद, वही द्वित्वभूत व्यञ्जन या स्वर, प्रकृति के अपने अङ्ग स्वरूप होने से वही धातु निमित्तक कार्य करने में व्यवधान नहीं करता है । जैसे देवदत्त अपने अङ्ग द्वारा तिरोहित नहीं हो सकता है । अतः यह न्याय
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