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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ६८)
१८७ इन सब बातों का श्रीलावण्यसूरिजी खंडन करते हैं। उनकी मान्यतानुसार 'स्वाङ्गमव्यवधायि' की कोई अनित्यता नहीं है । वे कहते हैं कि 'वेः स्कन्दोऽक्तयोः' २/३/५१ में 'वे:' पंचमीनिर्दिष्ट है, अतः उससे परत्व लेना है, वही धातु का लेना या 'स' का लेना ? अर्थात् परत्व विशेषण किस का हो ? धातु का या 'स' का ? धातु का विशेषण नहीं बन सकता है क्योंकि धातु स्वयं 'स' कार का विशेषण बनता है, अथवा 'स्कन्दः' पद से सकार ही विशेषित होता है क्योंकि 'स्कन्द्' धातु कार्यों के स्वरूप में नहीं है किन्तु सकार ही कार्या है और वही मुख्य होने से सूत्रकार 'वि' के परत्व से उसे ही विशेषित करते हैं ।
इस प्रकार विचार करने पर 'वेः स्कन्दोऽक्तयोः' २/३/५१ सूत्र का अर्थ इस प्रकार होता है । 'वि' से पर आये अव्यवहित 'स' का ष होता है यदि वह स्कन्द धातु सम्बन्धित हो, और उसके बाद में क्त या क्तवत् प्रत्यय न आया हो तो ।
इसी अर्थानुसार 'विचिस्कन्त्सति' इत्यादि प्रयोग में इस न्याय से भी षत्व की प्राप्ति दुःसाध्य ही है, अत: उसी 'षत्व' का निषेध करने के लिए इस न्याय को अनित्य बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है और 'शिड्नान्तरेऽपि' के अधिकार से उपसर्ग और सकार के बीच व्यवधान रहितत्व चाहिए, वह 'विचिस्कन्त्सति' इत्यादि प्रयोग में प्राप्त नहीं है, अत एव षत्व की प्राप्ति हो सकती नहीं है।
और इस प्रकार 'स्था सेनि सेध सिच सञ्जां द्वित्वेऽपि' २/३/४० में उक्त 'द्वित्वेऽपि' शब्द भी सार्थक ही है क्योंकि द्वित्व करने से 'प्रतितष्ठौ' इत्यादि में 'त' का व्यवधान आने पर 'स' में नामिपरत्व नहीं आता है, अतः उसी 'त' के व्यवधान को दूर करने के लिए "द्वित्वेऽपि' शब्द सूत्र में रखा है।
और 'स्था-सेनि-सेध-सिच सञ्जां द्वित्वेऽपि' २/३/४० में 'द्वित्वेऽपि' शब्द का महत्व बताते हुए सिद्धहेमबृहद्वृत्ति में कहा है कि 'सेन्' धातु अषोपदेश है इसलिए और 'स्था' और 'सञ्ज' में द्वित्व होने पर अवर्णान्त व्यवधान आता है उसे दूर करने के लिए तथा 'सिच्, सञ्ज' और 'सेध्' में 'षण' पर में हो तब, इसका नियम करने के लिए 'द्वित्वेऽपि' कहा है । न्यास में भी 'स्था' और 'सञ्ज' के लिए कहा है कि उपसर्ग स्थितनामी-अन्तस्था आदि और धातु के बीच अवर्णान्त व्यवधान पैदा होने के कारण 'स्था' और 'सच' का यहाँ ग्रहण किया है। इन सब बातों से ऐसा सचित होता है कि यहाँ सब को उपसर्ग स्थित 'नामी' आदि से अव्यवहित परत्व धातु का नहीं किन्तु 'स' का ही मान्य है।
इस प्रकार श्रीलावण्यसूरिजी की मान्यतानुसार इस न्याय की अनित्यता प्रतीत नहीं होती है और अनित्यता का कोई फल दिखाई नहीं देता है और यह न्याय ज्ञापकसिद्ध भी नहीं है क्योंकि स्वाङ्ग का अव्यवधायकत्व लोकसिद्ध ही है।
__ और इस न्याय में पूर्व के [ आगमा यद्गुणीभूता....] न्याय का समावेश हो ही जाता है क्योंकि आगम का - 'आदि' और 'अन्त' शब्द से विधान किया गया है। अतः प्रकृति के अवयव हो ही जाते हैं, अत: वह स्वाङ्ग कहा जाता है तथापि यह न्याय अप्रसिद्ध है और पूर्व का न्याय, प्रत्येक
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