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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) षत्व करने के लिए 'अट्यपि' कहना आवश्यक है और इस प्रकार 'अट्यपि' शब्द से इस न्याय की अनित्यता की सिद्धि नहीं हो सकती है तथा वे: स्कन्दोऽक्तयोः' २/३/५१ से 'व्यस्कन्दत्' इत्यादि में षत्व की प्राप्ति ही नहीं, अतः उसमें षत्व का निषेध करने के लिए इस न्याय को अनित्य बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है। शायद किसी स्थान पर इस न्याय को अनित्य मानने की आवश्यकता प्रतीत हो तो 'अतो म आने' ४/४/११४ सूत्र के सामर्थ्य से ही इस न्याय की अनित्यता सिद्ध हो सकेगी. अतः 'शयिष्यमाणः' इत्यादि प्रयोग में 'म' आगम को 'शयिष्य' के अकार के रूप में ही मान लिया जाय तो 'शयिष्याणः' प्रयोग ही होता, तो 'म' आगम व्यर्थ होता । वह व्यर्थ होकर इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापन करता है।
यहाँ ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है कि म आगम के विधान के सामर्थ्य से ही 'समानानां तेन दीर्घः' १/२/१ से होनेवाली दीर्घविधि का बाध होगा, अतः इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापन नहीं हो सकेगा, क्योंकि वैसा करने से साक्षात् शास्त्र का बाध होगा और शास्त्र के बाध की कल्पना करना, उससे न्याय के अनित्यत्व की कल्पना करने में औचित्य है ।
श्रीहेमहंसगणि ने 'उपसर्गात् सुग्'-२/३/३९ सूत्रगत 'अट्यपि' शब्द को इस न्याय की अनित्यता के ज्ञापक के रूप में माना है, उसके लिए उन्होंने इस न्याय के न्यास में तर्क प्रस्तुत करते हुए बताया है कि शायद कोई ऐसा कहे कि सूत्रकार आचार्यश्री ने 'नाम्यन्तस्था'-२/३/१५ सूत्र में 'शिड्नान्तरेऽपि' कहा है, उसी अधिकार से यहाँ अन्य वर्ण के व्यवधान को मान्य नहीं किया है। अत: 'अट्' के व्यवधान में षत्व होने की प्राप्ति ही नहीं है । अत एव यहाँ सूत्र में 'अट्यपि' कहा है । अतः इस 'अट्यपि' शब्द से किस प्रकार इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापन हो सकेगा ? इस शंका का प्रत्युत्तर देते हुए वे कहते हैं कि यदि यह न्याय नित्य होता तो 'सुग' इत्यादि के ग्रहण से 'अट्' सहित 'सुग' इत्यादि का ग्रहण सिद्ध होने से 'अट्' द्वारा व्यवधान होता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। अतः इस 'अट्यपि' को ज्ञापक माना वही उचित है ।।
इसका तात्पर्यार्थ इस प्रकार है- 'अभ्यषुणोत्' इत्यादि में आचार्यश्री को षत्व ही इष्ट है। उसका 'शिड्नान्तरेऽपि' के अधिकार से अन्य वर्ण के व्यवधान की अनुमति प्राप्त नहीं होने से 'अट्' के व्यवधान से षत्व का निषेध हो जाता है, उसी निषेध को यह 'आगमा यद्गुणीभूता' न्याय से दूर किया, तथापि न्याय की अनित्यता के कारण से आचार्यश्री को यकिन न हुआ, अतः सूत्र में षत्व के लिए 'अट्यपि' कहा है।
न्यासगत, श्रीहेमहंसगणि की उपर्युक्त बात का श्रीलावण्यसूरिजी ने पूर्णतया खंडन किया है । वे कहते हैं कि 'उपसर्गात्'- २/३/३९ सूत्र की वृत्ति इत्यादि का विचार करने पर सूत्रोक्त 'अट्यपि' शब्द सार्थक होने से इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापन करने में वह समर्थ नहीं है । इस सूत्र की वृत्ति का अर्थ इस प्रकार है- यदि द्वित्व न हुआ हो तो उपसर्गस्थित 'नामी, अन्तस्था' और 'क-वर्ग' से पर आये हुए 'स' का 'ष' होता है, यदि वह 'सुग्' इत्यादि धातु सम्बन्धित हो तो, 'अट्यपि' अट् आगम रूप व्यवधान होने पर भी षत्व होता है। और 'शिड्नान्तरेऽपि' के अधिकार
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