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प्रथम वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. १० )
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पाणिनीय परम्परा में यह सिद्धांत न्याय के स्वरूप में स्वीकृत नहीं है। फिर भी कातन्त्र की दुर्गसिंहकृत परिभाषावृत्ति और भावमिश्रकृत परिभाषावृत्ति, कालाप व्याकरण, जैनेन्द्र व्याकरण तथा भोज व्याकरण में यह न्याय परिभाषा के स्वरूप में उपलब्ध है ।
जैनेन्द्र परिभाषावृत्ति में, 'त्यद्' और 'तद्' सर्वनाम के स्त्रीलिङ्ग के 'स्या' 'सा' आदि रूपों को सिद्ध करने के लिए इस न्याय का उपयोग किया गया है । 'तद्' और 'त्यद्' के अन्त्य 'द्' का 'अ' करने के लिए 'स्यादि' विभक्ति / प्रत्यय जरूरी है किन्तु, वही विभक्ति / प्रत्यय आने से पूर्व ही 'तद्, त्यद्' शब्दों को स्त्रीलिङ्ग का 'आप्' लगता है, तब 'तद् त्यद्' शब्दों से भविष्य में 'स्यादि' प्रत्यय होनेवाला ही है, अतः इस न्याय से, 'स्यादि' प्रत्यय को आया हुआ मानकर 'त्यदादेर: ' [ जै. ५/१/१६१ ] से 'तद्, त्यद्' के अन्त्य 'द्' का 'अ' किया जाता है ।
॥ १०॥ यथासङ्ख्यमनुदेशः समानाम् ॥
संख्या से समान हो और समान वचन से निर्दिष्ट हो तो पूर्वपदों का उत्तरपदों के साथ 'यथासंख्य' अर्थात् अनुक्रम से सम्बन्ध होता है ।
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संख्या से और एकवचन, द्विवचन या बहुवचन, इस प्रकार दोनों तरह से समान निर्दिष्ट हों ऐसे पूर्व में आये हुए पदों का उत्तर में अर्थात् बाद में आये हुए पदों के साथ यथासंख्य अर्थात् संख्या के क्रम से या अनुक्रम से कथन करना अर्थात् प्रथम को प्रथम के साथ, द्वितीय को द्वितीय के साथ, तृतीय को तृतीय के साथ, चतुर्थ को चतुर्थ के साथ सम्बन्ध करके कथन करना, किन्तु परस्पर / अन्योन्य के क्रम में कोई परिवर्तन नहीं करना चाहिए या किसी एक को सर्व के साथ सम्बन्धित नहीं करना चाहिए ।
यह न्याय स्वेच्छानुसारी योजना का निषेध करने के लिए और नियमन के लिए है, उदा. जैसे 'ङेङस्योर्यातौ' १/४/६ सूत्र में 'स्थानी' और 'आदेश' दोनों दो-दो हैं और दोनों द्विवचन से निर्दिष्ट हैं, अतः यहाँ 'यथासङ्ख्यम्' की योजना सिद्ध है । यदि यह न्याय न होता तो 'डे' और 'ङसि' दोनों में प्रत्येक के साथ 'य' और 'आत्' को जोडने की आशंका होती क्योंकि इसी सूत्र में उसका निषेध नहीं किया गया है अर्थात् 'ङे' का भी 'य' और 'आत्' आदेश होता और 'ङसि' का भी 'य' और 'आत्' आदेश होता । 'आदेश' और 'स्थानी' समान संख्या में होने पर ही अनुक्रम से लिया जाता है, ऐसा क्यों ? 'नमस्पुरसो गतेः कखपफि रः सः ' २/३/१ यहाँ 'नमस्' और 'पुरस्' को 'कखपफ' के साथ समानवचन से निर्दिष्ट होने पर भी 'यथासङ्ख्यम्' (अनुक्रम) नहीं होगा क्योंकि दोनों (निमित्त और निमित्ति ) संख्या से तुल्य / समान नहीं है । तथा 'तौ मुमो व्यञ्जने स्वौ' १/३/ १४ में 'मु' और 'म्' को 'अनुस्वार' और ' अनुनासिक' के साथ अनुक्रम से सम्बन्ध नहीं होगा क्योंकि संख्या से दोनों समान होने पर भी वचननिर्देश से तुल्य नहीं है । 'मुमः' में एकवचन है, जबकि 'तौ' और 'स्वौ' में द्विवचन है ।
इस न्याय का ज्ञापक सूत्र 'चटते सद्वितीये' १/३/७ है । 'चटते सद्वितीये' १/३/७ सूत्र का
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