________________
प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ३४)
१०१ में हुआ है, अत: 'तदादेशस्तद्वत्' न्याय से वह भी प्रत्यय है और 'आप' तो स्वयं प्रत्यय है ही, अतः दोनों प्रत्ययों से निष्पन्न 'ध्या' भी प्रत्यय ही कहा जाय क्योंकि ब्राह्मण माता और पिता से उत्पन्न बालक भी ब्राह्मण ही कहा जाता है । अतः यहाँ प्रत्ययस्य' ७/४/१०८ परिभाषा से षष्ठ्यन्त निर्देश रूप भेदनिर्देश से समग्र/संपूर्ण 'ष्या' का ही 'ईच्' आदेश होगा अतः अभेदनिर्देश व्यर्थ हुआ। किन्तु यही बात उचित नहीं है क्योंकि ब्राह्मण पुत्र में माता-पिता भिन्न-भिन्न दिखायी नहीं पड़ते । जबकि यहाँ 'ष्या' में 'ष्य' और 'आप' दोनों स्पष्ट रूप से भिन्न-भिन्न दिखायी पड़ते हैं । अतः इस में प्रत्ययत्व नहीं आयेगा । यद्यपि प्रत्ययसमुदाय है, तथापि समुदाय में अवयव का धर्म नहीं आता है । यदि समुदाय में अवयव का धर्म मानेंगे तो 'शोभनं (कल्याणं) पाणिपादं यस्याः सा शोभन-(कल्याण) पाणिपादा' में स्वाङ्ग समुदाय में 'स्वाङ्गत्व' प्रसङ्ग उपस्थित होगा और 'असहनञ्' ....२/४/३८ से 'डी' का प्रसंग उपस्थित होगा किन्तु ऐसा नहीं होता है । प्रत्ययसमुदाय में 'प्रत्ययस्य' ७/४/१०८ परिभाषा का उपयोग नहीं हो सकेगा और 'ष्याया ईच्' रूप भेदनिर्देश से समग्र ‘ष्या' का 'ईच्' आदेश कदापि नहीं हो सकेगा।
यहाँ दूसरी शंका बताते हुए श्रीहेमहंसगणि और श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि वस्तुत: 'ष्या' प्रत्येक स्थान पर प्रत्ययसमुदाय रूप नहीं है । उदा. 'भोजवंशजाः क्षत्रियाः भोज्याः ' यहाँ 'ष्या' में स्थित ष्य' 'भोज' शब्द के अन्त्य 'अ' का आदेश है । अत: उसमें 'प्रत्ययत्व' नहीं आयेगा । अतः 'ष्याया ईच्' रूप में भेदनिर्देश करने से अन्त्य 'आप' का ही 'ईच्' आदेश होगा।
इस चर्चा को कुछेक लोग, 'ष्या ईच्' रूप अभेदनिर्देश के सार्थक्य की चर्चा मानते हैं, किन्तु वस्तुतः यह अभेदनिर्देश का चारितार्थ्य है । जबकि 'नानुबन्धकृतमनेकवर्णत्व' की दृष्टि से यह अभेदनिर्देश व्यर्थ होगा, अतः वह इस न्याय का ज्ञापक बनेगा । इसकी चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी ने 'तरंग' में बताया हैं कि 'ईच्' आदेश करते समय, यदि यह न्याय नहीं है और अनुबन्ध अवयव ही है, ऐसा मानेंगे तो 'ईच्' आदेश में 'अनेकवर्णत्व' आयेगा और वस्तुतः 'ईच्' आदेश की उत्पत्ति के समय, प्रथम उसके स्वाभाविक अनेकवर्णत्व का स्वीकार किया गया है किन्तु बाद में इस न्याय के कारण वह एकवर्णस्वरूप माना जाता है, अतः यदि इसके स्वाभाविक अनेकवर्णत्व के कारण भेदनिर्देश करने पर भी संपूर्ण 'ष्या' का 'ईच्' आदेश होनेवाला था ही, तथापि ऐसा न करके अभेदनिर्देश किया वह संपूर्ण 'घ्या' का 'ईच्' आदेश करने के लिए किया, वह व्यर्थ होकर इस न्याय का ज्ञापन करता है।
और इस प्रकार इस न्यायांश का ज्ञापन होने के बाद 'अनेकवर्णत्व' के अंश स्वरूप 'वर्ण' पद से अनुबन्ध का ग्रहण नहीं हो सकेगा । अतः अनुबन्धबोधक अवस्था में भी 'ईच्' आदेश में अनेकवर्णत्व का अभाव ही होगा । अतः संपूर्ण 'ष्या' का 'ईच्' आदेश करने के लिए अभेद-निर्देश किया वह चरितार्थ होगा।
संक्षेप में यहाँ वर्णविशिष्ट अनेकवर्णत्व का ग्रहण करना चाहिए किन्तु वही वर्ण अनुबन्ध के वर्ण से भिन्न होना चाहिए । यहाँ 'ईच्' आदेश में अनुबन्धभिन्नवर्ण से विशिष्ट अनेकवर्णत्व है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org