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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ६३)
१६१ ('लक्षणप्रतिपदोक्तयो:'-) और निरनुबन्ध न्याय (निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धकस्य) अनित्य है। किन्तु 'रु' के वर्जन को इस न्याय का ज्ञापक नहीं माना है । अत: उसे इस न्याय का ज्ञापक नहीं मानना चाहिए, ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं और वस्तुत: वे इस न्याय का ही स्वीकार नहीं करते हैं । केवल पूर्व के निरनुबन्ध न्याय को ही अनित्य मानते हैं।
कुछेक 'रु' में स्थित 'उ' कार को अनुबन्ध के रूप में स्वीकारते नहीं हैं। उनका कहना है कि 'रु' में स्थित उकार का अन्य कोई कार्य-प्रयोजन नहीं है, वह केवल उच्चारण के लिए ही है । जबकि शास्त्रकार की शैली-पद्धति अनुसार अनुबन्धों का विशिष्ट प्रयोजन होता है । यहाँ ऐसा कोई विशिष्ट प्रयोजन नहीं है, अतः उकार में अनुबन्धत्व नहीं है, अत एव वह इस न्याय का विषय नहीं बन पाता है ।
इसका खंडन करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते है कि 'अतोऽति रोरुः' १/३/२०, 'रोर्यः' १/३/२६ इत्यादि सूत्रों में उकार अनुबन्ध सार्थक है । अतः वह केवल उच्चार करने के लिए ही है, ऐसा नहीं है और वही उकार अनुबन्ध का फल यह है कि 'प्रातरत्र, भ्रातर्गच्छ' इत्यादि प्रयोग में उकार अनुबन्ध रहित रेफ का 'उ' नहीं होता है ।
ऊपर बताया, उसी प्रकार से 'उ' अनुबन्ध होने से 'निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धकस्य' की प्राप्ति दूर करना संभव नहीं है । अतः यह 'अरोः सुपि र:' १/३/५७ स्वरूप ज्ञापक द्वारा उसकी अनित्यता का ज्ञापन करना आवश्यक है।
यह न्याय कातंत्र की दुर्गसिंहकृत परिभाषावृत्ति, कालाप परिभाषापाठ को छोड़कर अन्यत्र कहीं भी प्राप्त नहीं है । शायद उन सभी परम्परा में 'निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धकस्य' न्याय की अनित्यता से ही निर्वाह किया गया है।
॥६३॥ साहचर्यात्सदृशस्यैव ॥ ६॥ साहचर्य से तत्सदृश का ही ग्रहण होता है ।
अव्यभिचारी द्वारा व्यभिचारी को नियंत्रित किया जाता है उसे साहचर्य कहा जाता है व्यभिचारी शब्द, धातु या प्रत्यय इत्यादि के साथ प्रयुक्त अव्यभिचारी शब्द, धातु या प्रत्यय के सदृश ही व्यभिचारी शब्द, धातु या प्रत्यय का ग्रहण करना किन्तु असदृश का ग्रहण नहीं करना ।
इष्ट शब्द, धातु या प्रत्यय इत्यादि के ग्रहण की सिद्धि के लिए यह न्याय है।
उदा. 'क्त्वातुमम्' १/१/३५ यहाँ क्त्वा' और 'तुम्' प्रत्यय 'कृत्' हैं, अतः उसके साहचर्य से 'अम्' प्रत्यय भी 'कृत्' ही लेना, किन्तु द्वितीया विभक्ति एकवचन का 'अम्' प्रत्यय नहीं लेना।
यह न्याय अनित्य है। अतः 'वत्तस्याम्' १/१/३४ में 'वत्' और 'तसि' के साहचर्य से, केवल तद्धित सम्बन्धित 'आम्' प्रत्यय का ग्रहण न करके, उसके जैसे, परोक्षा के स्थान में किये
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