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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.६१)
आख्यात प्रकरणगत 'नामिनोऽकलिहलेः' ४/३/५१ से, यहाँ 'द्वैमातुरः' इत्यादि प्रयोग में अन्त्य स्वर की वृद्धि क्यों नहीं होगी ? उसका कारण बताते हुए कहा है कि 'संभवे सति बाधनं भवति' न्याय के पक्ष में तक्रकौण्डिन्य' न्याय से जित् णित् तद्धित प्रत्यय पर में होने पर भी 'वृद्धिः स्वरेष्वादेः' ७/४/१ सूत्र से 'नामिनोऽकलिहलेः' ४/३/५१ का बाध होगा।
जिन लोगों की मान्यता है कि 'असंभवे सति बाधनं भवति' उनकी मान्यतानुसार 'माठरकौण्डिन्य' न्याय के द्वारा 'वृद्धिः स्वरेष्वादेः' ......७/४/१ से 'नामिनोऽकलिहलेः' ४/३/५१ का बाध करना संभव नहीं है, अतः उनकी मान्यतानुसार यहाँ कहते है कि आख्यातप्रकरण और कृत्प्रकरण एक ही हैं । अत एव 'नामिनोऽकलिहले:' ४/३/५१ सूत्र आख्यात और कृत्प्रत्यय होने पर ही प्रवृत्त होता है, जबकि यहाँ दोनों से भिन्न तद्वित प्रकरण है । अतः यहाँ 'नामिनोऽकलिहले:' ४/३/५१ की प्राप्ति ही नहीं है । और वृद्धिः स्वरेष्वादेः' ७/४/१ से होनेवाली वृद्धि और उसका सूत्र तद्धित प्रकरण में ही कहा गया है । अतः स्वप्रकरण सम्बन्धित सूत्र से ही वृद्धि होगी किन्तु अन्य प्रकरण कथित वृद्धि सूत्र से वृद्धि नहीं होगी । और 'नामिनोऽकलिहलेः' ४/३/५१ तथा 'वृद्धिः स्वरेष्वादेः' ......७/४/१ के बीच ज्यादा अन्तर भी है, अत एव इन दोनों में परस्पर बाध्यबाधक भाव पैदा नहीं होता है।
मेरी दृष्टि से भी आख्यातप्रकरण और कृत्प्रकरण दोनों एक ही हैं क्योंकि सूत्रकार आचार्यश्री ने स्वयं चौथे अध्याय में आख्यात सम्बन्धित सूत्रों के विधान करने के बाद भी पांचवें अध्याय में जिस में बहुधा/विशेष रूप से कृत्प्रत्यय विधायक सूत्र ही है उसमें भी बीच में कहीं कहीं आख्यात सम्बन्धित सूत्र भी रखे हैं । और इन सूत्रों से विहित प्रत्ययों की कृत्संज्ञा न हो इसलिए पांचवें अध्याय के प्रथम सूत्र 'आ तुमोऽत्यादिः कृत् '५/१/१ में संपूर्ण पांचवें अध्याय में कहे गये त्यादि प्रत्यय का वर्जन किया गया है । पाचवें अध्याय में आये हुए आख्यात प्रत्यय सम्बन्धित सूत्र इस प्रकार हैं :
(१) श्रुसदवस्भ्यः परोक्षा वा ५/२/१ (२) अद्यतनी ५/२/४ (३) विशेषाऽविवक्षा - व्यामिश्रे ५/२/५ (४) रात्रौ वसोऽन्त्ययामाऽस्वप्तर्यद्य ५/२/६ से सति ५/२/१९ तक (५) भविष्यन्ती ५/३/४ से क्रियायां क्रियार्थायां तुम्णकचभविष्यन्ती ५/३/१३ (६) सत्सामीप्ये सद्वद् वा ५/४/१ से अधीष्टौ ५/४/३२ (७) सप्तमी यदि-५/४/३४, शक्तार्हे कृत्याश्च ५/४/३५ (८) आशिष्याशीः पञ्चम्यौ ५/४/३८ से प्रचये नवा सामान्यार्थस्य ५/४/४३ (९) इच्छार्थे कर्मणः सप्तमी ५/४/८९
यदि सूत्रकार आचार्यश्री को दोनों प्रकरण की भिन्न भिन्न व्यवस्था करनी होती तो, उपर्युक्त करीब ६८ सूत्रों को चौथे अध्याय के किसी भी पाद में समाविष्ट किये होते, तथापि ऐसा नहीं किया है, इससे स्पष्ट होता है कि दोनों प्रकरण एक ही हैं । और चौथे अध्याय में निर्दिष्ट गुण-वृद्धि-आदेश -लोप इत्यादि सम्बन्धित सूत्रों की प्रवृत्ति पांचवें अध्याय में भी होती है।
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