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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण )
४/३/८३
वह 'ङपरक' नहीं है अर्थात् उसके पर में ङ नहीं है। जबकि दूसरा 'णि' 'ङ परक' है अर्थात् उसके घर में 'ङ' है किन्तु वह धातु से अव्यवहित पर में नहीं है। अतः 'चो' का 'उपान्त्यस्यासमानलोपि'४/२/३५ ह्रस्व नहीं होगा क्योंकि सूत्र में 'ङे परे णौ' का विधान किया है, और यदि 'पोरनिटि' 'पूर्व के 'णि' का लोप करने पर 'ङ परक णि' प्राप्त तो होता है किन्तु धातु समानलोपि हो जाता है, अत: 'उपान्त्यस्या' - ४/२/३५ से उपान्त्यहूस्व नहीं होगा । यदि 'उपान्त्यस्या- ' ४ / २ / ३५ सूत्र में 'णि' से 'णि' जाति का ग्रहण किया जाय तो दोनों 'णि' एक ही माना जायेगा । अतः दोनों 'णि', ङपरक ही माने जायेंगे और यदि दोनों 'णि' का निमित्त स्वरूप में ग्रहण किया जाय तो, पूर्व के 'णि' का लोप होने पर भी धातु 'समानलोपि' नहीं होता है क्योंकि 'णि' को छोड़कर अन्य किसी 'समानस्वर' का लोप होने पर ही समानलोपित्व प्राप्त होता है । उदा. 'कलिमाख्यत् अचकलत्' । यहाँ 'कलि' शब्द के 'इ' का लोप, 'त्र्यन्त्यस्वरादे: ' ७/४/४३ से होगा, अतः वह समानलोप होगा ।
यहाँ ' अचूचुरत्' में ऊपर बताया उसी प्रकार से समानलोपित्व का अभाव होते ही 'उपान्त्यस्या' ४/२/३५ से 'चु' रूप में ह्रस्व होने के बाद, 'द्विर्धातुः '... ४/१/१ से द्वित्व होने के बाद पूर्व क लघुनामी स्वर का 'लघोर्दीर्घो स्वरादेः ४ / १ / ६४ से दीर्घ होगा और 'अचूचुरत्' प्रयोग सिद्ध होगा ।
इस न्याय के बारे में श्रीलावण्यसूरिजी इस प्रकार चर्चा करते हैं ।
'प्रत्युच्चारणं शब्दो भिद्यते' ( प्रत्येक उच्चारण के समय शब्द भिन्न होता है ) ऐसी उक्ति, व्याकरणशास्त्र में कहीं कहीं पायी जाती है । महाभाष्य में बहुत से स्थान पर ऐसा मालूम पड़ता है । अतः जब एक ही शब्द का बार-बार प्रयोग होता है, तब प्रत्येक को भिन्न मानना या सब को एक ही मानना, उसके समाधान / निराकरण के लिए यह न्याय है ।
एक ही 'अ' कार, प्रत्येक समय पर भिन्न होता है और ह्रस्व, दीर्घ, इत्यादि भेदयुक्त भी होता है । उसी प्रकार / वैसे अन्य वर्ण भी वह कालभेद, देशभेद या गुणभेद से भिन्न भिन्न होता है । अतः एक के ग्रहण से अन्य का ग्रहण नहीं हो सकता है । उन सब का ग्रहण करने के लिए यह न्याय है ।
'वर्णग्रहण' अर्थात् वर्णत्व की व्याप्यजाति से अवच्छिन्न जो होता है, उसका ग्रहण करने से उसी जाति से अवच्छिन्न प्रत्येक जाति का ग्रहण होता है। लोग में भी जाति पक्षका आश्रय करके व्यवहार होता है और वह प्रसिद्ध भी है । अतः इस न्याय के लिए ज्ञापक की अपेक्षा नहीं है । उदा. 'देवः पूज्यः' प्रयोग में देवत्व जाति की विवक्षा करने से प्रत्येक देव का पूज्यत्व सिद्ध होता है ।
तथापि श्रीमहंसगणि ने इस न्याय से सिद्ध होनेवाले प्रयोग की सिद्धि के लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया गया है, उसे, इस न्याय का ज्ञापक माना है, ऐसा कहा गया वह उचित नहीं है । श्रीलावण्यसूरिजी 'यत्नान्तराकरणम्' को कदापि ज्ञापक के रूप में स्वीकार करते नहीं हैं । वे कहते हैं कि 'आचार्यश्री ने इसके लिए कोई प्रयत्न नहीं किया है, ऐसा कहने से उस न्याय से सिद्ध होनेवाले प्रयोग में अनभिधानत्व है, ऐसा स्वीकार करने की आपत्ति आती है । और आचार्य श्री
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