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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ६५ )
भ्रान्तिमूलक ही है, और इस भ्रान्ति के कारण ग्रहणपक्ष समुपस्थापित हुआ है ।
इस अग्रहणपक्ष में 'ऋ' में स्थित रेफ का स्वतंत्र ग्रहण नहीं होता है, अंत: 'आनृधुः' इत्यादि में 'न' का आगम करने के लिए, णत्व के लिए णत्वविधि में तथा 'कृप्' धातु के रेफ का 'लृ' आदेश करने के लिए तत्सम्बन्धित सूत्र में 'ऋ' का पृथक् ग्रहण करना चाहिए और ऐसा न करने से कैसे दोष पैदा होते हैं, उसे दिखाकर, वहाँ वहाँ ज्ञापक इत्यादि से कार्यसिद्ध करके, महाभाष्यकार ने अग्रहणपक्ष को ही समर्थित किया है ।
उपर्युक्त सभी चर्चा पाणिनीय तंत्र के महाभाष्य की है, किन्तु सिद्धहेम की परम्परा में अग्रहणपक्ष है या ग्रहणपक्ष है, उसकी चर्चा श्रीलावण्यसूरिजी ने की है। उनकी मान्यतानुसार सिद्धम में भी अग्रहणपक्ष ही है । उनका तर्क इस प्रकार है
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१. 'आनृधुः' इत्यादि प्रयोग में न का आगम करने के लिए 'अनातोनश्चान्त ऋदाद्यशौ संयोगस्य ४ / १ / ६९ में ऋदादि का ग्रहण किया है ।
२. 'रवर्णान्नो ण एकपदे ...२ / ३ / ६३ में रेफ और ॠ दोनों का ग्रहण किया है ।
३. 'कृप्' धातु के 'ऋ' और 'र्' का अनुक्रम से 'लू' और 'लू' करने के लिए 'ऋर लृलं कृuisकृपीटादिषु' २/ ३ / ९९ सूत्र में केवल 'र्' का ग्रहण किया होता तो चल सकता तथापि 'ऋ' का भी ग्रहण किया है, इससे यह सिद्ध होता है कि सूत्रकार आचार्य श्री को अग्रहणपक्ष ही मान्य है । वे दूसरी बात यह कहते हैं कि 'रदादमूर्च्छमदः ' ... ४ / २ / ६९ सूत्र की वृत्ति में 'रेफात् परेण स्वरभागेन व्यवधानाद् वा' कहकर दूसरा समाधान रखा है, वह भी ग्रहणपक्षवाले की दृष्टि से यह प्रयोग कैसे सही है, उसका ज्ञापन करने के लिए ही है। किन्तु उससे ग्रहणपक्ष आचार्यश्री को सम्मत है, ऐसा सिद्ध नहीं होता है ।
तीसरी बात यह कहते हैं कि 'प्रलीयमान' की तरह 'प्रक्लृप्यमान' इत्यादि में 'णत्व' का निषेध करने के लिए ही यह न्याय है, किन्तु इस न्याय के बिना भी णत्व का निषेध हो सकता है क्यों कि क्लृप् में साक्षात् / स्पष्टतया लश्रुति विद्यमान है । इसे छोड़कर अन्य किसी भी कारणवश इस न्याय के अस्तित्व की संभावना प्रतीत नहीं होती है ।
श्रीमहंसगणि इस न्याय के न्यास में दूसरी बात यह कहते हैं कि 'ऋ' में स्थित रेफ का रेफ के स्वरूप में ही ग्रहण करने पर भी ' कृतः, कृतवान्' में 'त' का 'न' नहीं होगा, क्योंकि रेफ और 'त' के बीच स्वर का व्यवधान है तथापि श्रीहेमचन्द्राचार्यजी ने यही व्यवधान केवल एकचतुर्थांश मात्रायुक्त होने से, अत्यन्त अल्प होने के कारण उसकी विवक्षा नहीं की है और यह बात उन्होंने 'रदादमूर्च्छमदः '...४/२/६९ सूत्र की बृहद्वृत्ति में कहे 'ऋकारैकदेशभूतस्य रेफस्याग्रहणात् ' विधान से स्पष्ट होती है ।
संक्षेप में आचार्यश्री को अग्रहणपक्ष ही मान्य हो ऐसा प्रतीत होता है ।
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