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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ६५)
१७३ चतुर्थांश मात्रावाले स्वर हैं । वैसे ही 'लकार' में मध्य में अर्धमात्रावाला 'ल' है और आगे तथा
चतर्थांश मात्रावाले स्वर हैं । अतः जैसे गाय बेचने से मांस नहीं बेचने का नियम भंग नहीं होता है, क्योंकि गाय में मांस बुद्धि का अभाव है, वैसे 'ऋ', 'लु' के ग्रहण में 'र्, ल्' का ग्रहण प्राप्त नहीं था क्योंकि 'ऋ' और 'ल' में, 'रत्व' और 'लत्व' बुद्धि का अभाव है। अतः 'ऋ' और 'लु' द्वारा, 'र' और 'ल' का भी ग्रहण होता है उसका ज्ञापन करनेवाला यह न्याय है।।
उदा. 'प्रलीयमानम्' प्रयोग में जैसे 'प्र' और 'न' के बीच व्यवधान होने से 'स्वरात्' २/ ३/८५ से 'न' का 'ण' नहीं हुआ है, वैसे 'प्रक्लृप्यमानम्' में भी 'स्वरात्' २/३/८५ से प्राप्त 'न' के 'ण' का 'लु' के व्यवधान से, उसके एक भाग रूप 'ल' का व्यवधान स्वीकार करके निषेध हुआ है अर्थात् 'न' का 'ण' हुआ नहीं है।
इस न्याय का ज्ञापक 'प्रक्तृप्यमानम्' इत्यादि प्रयोग में 'रषवर्णान्नो णः'....२/३/६३ से 'रघुवर्णात्' की अनुवृत्ति जिसमें आती है ऐसे 'स्वरात्' २/३/८५ से प्राप्त णत्व का निषेध करने के लिए अन्य कोई विशिष्ट प्रयत्न नहीं किया है, वही 'यत्नान्तराकरण' है ।।
यह न्याय अनित्य होने से 'कृतः, कृतवान्' इत्यादि में 'रदादमूर्च्छमदः क्तयोर्दस्य च' ४/ २/६९ से 'क्त' और 'क्तवतु' के 'त' का 'न' नहीं हुआ है । यदि यह न्याय नित्य होता तो 'कृ' के 'ऋ' में आये रेफ के कारण 'रदादमूर्च्छमदः'-४/२/६९ से 'क्त' और 'क्तवतु' के 'त' का 'न' हो ही जाता ।
इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापन 'रघुवर्णात्'....२/३/६३ सूत्र में रेफ और ऋवर्ण दोनों का ग्रहण किया है, उससे होता है। यदि यह न्याय नित्य होता तो ऋवर्ण में भी रेफ होने से रेफ का ही ग्रहण किया होता तो चल सकता किन्तु इस न्याय की अनित्यता बताने के लिए वैसा नहीं किया गया है । और पाणिनि ने भी इस न्याय के कारण 'ण' विधायक सूत्र में, रेफ और ऋवर्ण दोनों के ग्रहण करने के बजाय केवल रेफ का ही ग्रहण किया है और 'रषाभ्यां नो णः' कहा है, क्योंकि ऋवर्ण में रेफ आया हुआ है । अत: उससे पर आये 'न' का 'ण' हो ही जायेगा।
इस न्याय की विशेष चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि यहाँ इस न्याय में दो पक्ष हैं । एक कहता है कि वर्णग्रहण से उसके एकदेश का भी ग्रहण होता है । दूसरा पक्ष कहता है कि वर्णग्रहण से उसके एकदेश का ग्रहण नहीं होता है।
हाँ 'कृतः, कृतवान्' में 'रदादमूर्च्छमदः'.....४/२/६९ से 'त' का 'न' होने की आशंका तब ही पैदा होती है, जब प्रस्तुत न्याय के अस्तित्व का ज्ञान हो, और तो उसी शंका के निवारण के लिए समाधान खोजना आवश्यक होता । यहाँ अग्रहणपक्ष' लेने पर यह न्याय अनित्य है, ऐसा सिद्ध होता है, अत: 'कृतः' में स्थित् 'ऋ' से रेफ का ग्रहण नहीं होगा, तभी 'त' का 'न' भी नहीं होगा । यदि कोई इस न्याय को नित्य ही मानता है, अर्थात् अकेले ग्रहणपक्ष का ही स्वीकार करता है तो, उनके मत से भी यहाँ 'नत्व' का अभाव होगा, इसको बताने के लिए यहाँ दूसरा समाधान रखा है । उसमें कहा है कि 'रेफात्परेण स्वरभागेन व्यवधानाद्' अर्थात् 'ऋ' के ग्रहण से रेफ का
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