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न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) अकेला हो तो । 'संपन्नो यवः, संपन्ना यवाः ।' यहाँ जाति अर्थ में एकवचन का ही प्रयोग की संभावना होने से, उससे बहुवचन करने के लिए इसी सूत्र की रचना की गई है, अत: ‘संपन्ना यवाः' प्रयोग भी होगा।
यदि व्याकरण में व्यक्ति पक्ष ही मान्य होता तो, 'यव' में व्यक्ति बाहुल्य होने से स्वाभाविकतया ही बहुवचन होनेवाला ही था, तथापि यह सूत्र बनाया, इससे ज्ञापित होता है कि व्याकरण में जाति पक्ष मान्य है।
यदि जातिपक्ष अकेला ही यहाँ मान्य होता तो 'स्यादावसङ्ख्येयः' ३/१/११९ से एकशेष समास करने की आवश्यकता नहीं थी, तथापि व्यक्तिपक्ष भी मान्य होने से प्रत्येक के लिए भिन्न भिन्न शब्दप्रयोग होगा । अतः 'एकशेष' का विधान करना आवश्यक है।
जातिपक्ष का स्वीकार करने पर भी भिन्न भिन्न अर्थवाले, सरूप शब्दों में 'एकशेष' नहीं होगा । अतः एकशेष का विधान करना आवश्यक है ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि ऐसा मानने से 'अक्षा भुज्यन्ताम्, भज्यन्ताम्, दीव्यन्ताम्,' प्रयोग में 'अक्ष' शब्द बिभीतक ( ) अर्थ में शकटाङ्ग ( ) अर्थ में तथा देवनाङ्ग ( ) अर्थ में है। अतः उनका 'एकशेष' कदापि नहीं हो सकेगा। अत एव ऐसे प्रयोग में एक ही अक्षत्व जाति का स्वीकार करके उसी शब्द के वाच्य में परम्परा से व्यक्ति का ज्ञान होता है, ऐसा स्वीकार करने से कोई दोष पैदा नहीं होता है ।
___ 'जाति में जाति रहती नहीं है, ऐसी मान्यता नैयायिकों की है क्योंकि ऐसा करने से अनवस्था दोष पैदा होता है । अतः उन्होंने ऐसी मान्यता का स्वीकार किया है किन्तु वैयाकरण जाति में भी जाति मानते हैं क्योंकि उन लोगों का ऐसा नहीं है कि प्रत्येक जाति में जाति होनी ही चाहिए। वे कहते हैं कि जहाँ अवच्छेदकता से जाति में जाति की सिद्धि हो सकती हो, वहाँ ही इसे मानना, अन्यत्र नहीं ।
संक्षेप में समग्र/संपूर्ण व्याकरण में जातिपक्ष और व्यक्तिपक्ष दोनों मान्य हैं किन्तु यह न्याय केवल वर्णग्रहण के विषय में है, अतः इसके बारे में विचार करने पर लगता है कि उसमें भी दोनों पक्ष मान्य हैं । सिद्धहेम में 'औदन्ताः स्वराः' १/१/४ सूत्र में ऊपर बताया गया है उसी प्रकार से दोनों पक्ष मान्य किये गये हैं, वैसे पाणिनि व्याकरण में भी 'अइउण्' सूत्र-१ के महाभाष्य में पतंजलि ने व्यक्तिवादियों के मतानुसार अकार इत्यादि में सब भेद/प्रकार बताकर, अन्त में जातिपक्ष द्वारा समाधान किया है।
यह न्याय केवल भावमिश्रकृत कातंत्र परिभाषावृत्ति में ही है, अन्यत्र कहीं भी इसे परिभाषा के रूप में बताया गया नहीं है ।
॥६५॥ वर्णैकदेशोऽपि वर्णग्रहणेन गृह्यते ॥ ८॥ वर्ण के ग्रहण से वर्ण के एक अंश का भी ग्रहण होता है । वृद्ध प्रवाद ऐसा है कि 'ऋ' के मध्य में अर्धमात्रावाला रेफ है और आगे तथा पीछे एक
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