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न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) १/४/५५ सूत्र से उन्होंने बताया है कि पर्यायवाची शब्दों में गौरव-लाघव की चर्चा आवश्यक नहीं है।
श्रीहेमहंसगणि तथा श्रीलावण्यसूरिजी ने 'वेत्तेरवित्' सूत्र की रचना करने को कहा है, किन्तु मेरी दृष्टि से वह उचित नहीं है । यद्यपि लघुन्यास में ऐसी चर्चा है, अत एव उन्होंने भी ऐसी चर्चा की है। विद् धातु से होनेवाले 'आम्' में कित्त्व नहीं है, उसकी प्राप्ति कराने के लिए 'वेत्तेः कित्' ३/४/५१ सूत्र की रचना आवश्यक है किन्तु 'वेत्तेरवित्' सूत्रकरण की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि जैसे 'आम्' कित् नहीं है वैसे वह 'वित्' भी नहीं है, अत: वह 'अवित' ही है।
यहाँ शायद किसीको ऐसी शंका हो सकती है कि परीक्षा के 'णव् ' प्रत्यय के स्थान पर जब 'आम्' होगा तो उसमें वित्त्व आयेगा । अतः 'आम्' को अवित् करना आवश्यक है। किन्तु यह शंका उचित नहीं है क्योंकि 'धातोरनेकस्वरादाम्'...३/४/४६ से परोक्षा के स्थान पर हुए ‘आम्' में परोक्षावद्भाव आता नहीं है । यदि परोक्षा के अर्थ में हुए प्रत्यय में परोक्षावद्भाव प्राप्त होता तो, 'तत्र क्वसुकानौ तद्वत्' ५/२/२ में तद्वत्' शब्द न रखा होता । अतः जैसे 'क्वसु' और 'कान' प्रत्यय में परोक्षावद्भाव करने के लिए 'तद्वत्' शब्द रखा वैसे 'धातोरनेकस्वरादाम्....३/४/४६ में भी तद्वत् शब्द रखकर परोक्षावद्भाव प्राप्त होता, तो 'आम्' अवित् होने से अपने आप ही उसमें 'इन्ध्यसंयोगात्'....४/३/२१ से कित्त्व आ जाता, तथापि 'आम्' में 'कित्त्व' की प्राप्ति कराने के लिए 'वेत्तेः कित्' ३/४/५१ सूत्र बनाया, उससे ज्ञात होता है कि 'आम्' में परोक्षावद्भाव नहीं है । यदि 'आम्' में परोक्षावद्भाव होता तो 'वेत्तेः कित्' ३/४/५१ या 'वेत्तेरवित्' दो में से एक भी सूत्र की आवश्यकता नहीं रह पाती । और 'आम्' के परोक्षावद्भावाभाव से 'दयाञ्चक्रे' इत्यादि में 'अनादेशादेरेक'...४/१/२४ से एत्व नहीं होगा।
दूसरी एक विशेष बात ध्यान देने योग्य यह है कि 'धातोरनेकस्वरादाम्'.... ३/४/४६ से संपूर्ण परीक्षा प्रत्यय के स्थान पर ही 'आम्' आदेश होता है किन्तु कोई एक ही प्रत्यय विशेष के स्थान पर 'आम्' आदेश नहीं होता है । अत: णव, थव् इत्यादि के वित्त्व का 'आम्' में व्यपदेश नहीं हो सकता है । इसलिए भी 'वेत्तेरवित्' की कोई आवश्यकता नहीं है, ऐसी मेरी मान्यता है।
यह न्याय व्याडि के परिभाषासूचन, कातंत्र की दुर्गसिंहकृत और भावमिश्रकृतवृत्तियाँ, कातंत्र परिभाषापाठ, कालाप, जैनेन्द्रवृत्ति एवं भोजव्याकरण में प्राप्त नहीं है । पाणिनीय परम्परा के पश्चात्कालीन सभी परिभाषासंग्रह में यह न्याय प्राप्त है ।
॥६४॥ वर्णग्रहणे जातिग्रहणम् ॥७॥ 'वर्ण' के ग्रहण से, उसी वर्ण के सजातीय अनेक वर्षों का ग्रहण होता है।
सूत्र में एक वर्ण का ग्रहण किया हो, तो, वहाँ उसके सजातीय अनेक वर्ण का भी ग्रहण होता है । 'अमुकवर्णस्य' इस प्रकार एकवचन से निर्देश किया होने से, एक ही वर्ण का ग्रहण हो सकता है, किन्तु दो, तीन इत्यादि का ग्रहण नहीं हो सकता है, उसका ग्रहण करने के लिए यह न्याय है।
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