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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.६३)
१६५ 'वेत्तेरवित्' स्थान पर 'वेत्तेः कित्' ३/४/५१ करने से वर्णलाघव और प्रक्रियालाघव होता है । 'कित्' से 'अवित्' में वर्ण/मात्रा ज्यादा है। अतः और 'आम्' को अवित् किया जाय बाद में परोक्षावद्भाव द्वारा 'इन्ध्यसंयोगात् परोक्षा किद्वत् '४/३/२१ से 'कित्त्व' लाकर बाद में गुणाभाव होगा उसके बजाय 'आम्' को सीधे ही 'किद्वत्' करने से प्रक्रियालाघव भी होगा और 'मात्रालाघवमप्युत्सवाय मन्यन्ते वैयाकरणाः । न्याय होने से यही सूत्ररचना सार्थक होगी । अतः यह सूत्र परोक्षावद्भावाभाव का ज्ञापन करने में समर्थ नहीं होगा।
श्रीहेमहंसगणि ने स्वयं पूर्वपक्ष के रूप में प्रतिपादित की गई इसी सार्थकता का आंशिक खंडन करते हुए वे कहते हैं कि मात्रालाघव करना वही आचार्यश्री को एकान्तरूप में सम्मत नहीं है । क्योंकि उन्होंने जैसे 'क्लीबे' २/४/९७ सूत्र में नपुंसकलिङ्ग के लिए 'क्लीब' शब्द का प्रयोग किया है वैसे 'नपुंसकस्य शिः' १/४/५५ में 'क्लीब' का प्रयोग किया होता किन्तु ऐसा नहीं किया उससे ज्ञापित होता है 'मात्रालाघवमप्युत्सवाय मन्यन्ते वैयाकरणा:' न्याय अनित्य है, अतः लाघव सम्बन्धित अभाव के कारण 'वेते: कित्' ३/४/५१ से हुआ कित्त्वविधान व्यर्थ होकर परोक्षावद्भावाभाव का ज्ञापन करता है, और ऐसा करने से यदि लाघव हो तो वही गुण ही है, कोई दोष नहीं है। ऐसा अन्य स्थानों पर भी देखने को मिलता है। उदा. 'अनवर्णा नामी' १/१/६ सूत्र में संज्ञा को एकवचन में रखकर वचनभेद क्यों किया? उसकी स्पष्टता करते हुए आचार्य श्रीहेमचंद्रसूरिजी कहते हैं, जहाँ 'नामिन्' संज्ञा सम्बन्धित कार्य करना हो वहाँ कार्य स्वर से कार्यो स्वर न्यून होना चाहिए, और तभी वहाँ 'नामिन्' संज्ञा होती है अन्यथा 'नामिन्' संज्ञा नहीं होती है, उसका ज्ञापन करने के लिए 'नामी' इस प्रकार एकवचन में रखकर वचनभेद किया है। अतः 'ग्लायति, म्लायति' इत्यादि धातु के ऐकार की नामिन् संज्ञा न होने से 'नामिनो गुणोऽक्ङिति' ४/३/१ से गुण नहीं होगा।
इसकी विशेष स्पष्टता करते हुए श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि गुण, अधिक या विशेष आरोपण स्वरूप है । 'ग्लायति' इत्यादि में ऐकार है और इसका गुण हो तो उसका आसन्न ए होता है और एकार, ऐकार से न्यून है । यद्यपि ऐकार और एकार दोनों दो-दो मात्रायुक्त होने पर भी एकार विवृततर आस्यप्रयत्न द्वारा पैदा होता है, जबकि ऐकार अतिविवृततर आस्यप्रयत्न द्वारा पैदा होता है। इस प्रकार ऐकार से एकार न्यून है । अत: यदि ऐकार का 'ए' करने पर अधिक/विशेष आरोप होने की बात दूर रहती है और इसके स्थान पर न्यूनता आती है । अत: 'ऐ' का 'ए' होनेवाला हो तो 'ऐ' की 'नामिन्' संज्ञा नहीं होती है । उसका ज्ञापन करने के लिए संज्ञा (नामिन् ) को एकवचन में रखा है और ऐसा करने से वर्ण का लाघव होता है, वह गुण ही है किन्तु दोष नहीं है।
श्रीलावण्यसूरिजी कित् और अवित् सम्बन्धित श्रीहेमहंसगणि द्वारा की गई गौरव-लाघव की चर्चा को मान्य नहीं करते हैं । वे कहते हैं परोक्षा के विषय में अवित् और कित् पर्यायवाची हैं, अतः उनके गौरव-लाघव की चर्चा नहीं करनी चाहिए और प्रक्रियागौरव की जो बात है उसका भी वे स्वीकार नहीं करते हैं । तथा श्रीहेमहंसगणि ने दिये हुए 'क्लीबे' २/४/९७ और 'नपुंसकस्य शिः'
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