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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) गये, आख्यात सम्बन्धित 'आम्' प्रत्यय का भी ग्रहण होता है, अतः 'इदमनयोरतिशयेन किमिति किंतराम्' । यहाँ 'किं' शब्द से 'द्वयोर्विभज्ये च तरप्' ७/३/६ से 'तरप्' प्रत्यय होगा और 'किंत्याद्येऽव्ययादसत्त्वे तयोरन्तस्याम्' ७/३/८ से 'तरप्' प्रत्यय के अन्त्य का 'आम्' आदेश होने पर, उसी 'आम्' से विहित 'सि' प्रत्यय का 'अव्ययस्य' ३/२/७ से लुप् होता है क्योंकि वही 'किंतराम्' इत्यादि रूपों को 'वत्तस्याम्' १/१/३४ से अव्यय संज्ञा होती है। उसी ही तरह / वैसे ही 'पाचयाञ्चक्रुषा' में भी परीक्षा के स्थान पर हुए 'आम्' प्रत्ययान्त 'पाचयाम्' शब्द को 'वत्तस्याम्' १/१ / ३४ से अव्यय संज्ञा होने से 'अव्ययस्य' ३/२/७ से 'टा' प्रत्यय का लोप होता है ।
यहाँ इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापक नहीं बताया गया है ।
श्री लावण्यसूरिजी ने इस न्याय को लोकसिद्ध बताया है । उसका लोकसिद्धत्व बताते हुए वे कहते हैं कि 'रामलक्ष्मणौ' कहने से 'लक्ष्मण' के साहचर्य से 'राम' शब्द द्वारा 'दशरथ' राजा के पुत्र 'राम' का ही ग्रहण होगा और 'रामकृष्णौ' कहने से 'राम' शब्द से, 'कृष्ण' के साहचर्य से 'बलराम' का ग्रहण होगा । अतः यहाँ ज्ञापक की अपेक्षा नहीं है । तथापि श्रीहेमहंसगणि ने 'अविशेषोक्ति' को ही इस न्याय का ज्ञापक माना है, वह उचित प्रतीत नहीं होता है क्योंकि 'अविशेषोक्ति' से सामान्य का ग्रहण संभव है किन्तु विशेष का ग्रहण संभव नहीं है ऐसा श्री लावण्यसूरिजी कहते हैं । किन्तु ऐसे स्थान पर सामान्य का ग्रहण इष्ट नहीं होता है बल्कि विशेष का ग्रहण ही इष्ट होता है, अतः विशेषोक्ति करना अनिवार्य है तथापि विशेषोक्ति नहीं की गई है, वह इस न्याय के अस्तित्व को मानकर अन्य शब्द, धातु या प्रत्यय के साहचर्य से, उससे सम्बन्धित 'तत्सदृश' का ही ग्रहण होगा ।
इस न्याय के अनित्यत्व का फल बताया गया वह उचित / सही नहीं है ।
'वत्तस्याम् ' १/१ / ३४ सूत्र के बृहन्न्यास और लघुन्यास में 'आम्' से तद्धित के 'आम्' के साथसाथ परोक्षा के स्थान में हुए 'आम्' के ग्रहण को और षष्ठी के 'आम्' प्रत्यय के अग्रहण को इस प्रकार सिद्ध किया है और उसमें इस न्याय की ही प्रवृत्ति की गई है ।
बृहन्न्यास में कहा है कि 'आम्' तीन प्रकार के हैं । (२) षष्ठी के बहुवचन का 'आम्' ( २ ) तद्धित का 'आम्' ( ३ ) परोक्षा के स्थान पर हुआ 'आम्' । यहाँ 'वत्तस्याम् ' १/१ / ३४ में कौनसा 'आम्' लेना उसकी कोई विशेष स्पष्टता नहीं कि गई है तथापि षष्ठी बहुवचन के आम् को छोड़कर शेष दो प्रकार के 'आम्' को ही ग्रहण करना । क्योंकि 'वत्' और 'तस्' प्रत्यय अविभक्ति है, अतः 'आम्' भी अविभक्ति ही ग्रहण करना । तद्धित का 'आम्' प्रत्यय जैसे अविभक्ति है वैसे परोक्षा के अर्थ में हुए 'क्वसु' प्रत्यय के स्थान पर हुआ 'आम्' भी अविभक्ति है, जबकि षष्ठी बहुवचन का 'आम्' प्रत्यय विभक्ति का प्रत्यय है, अतः उसका ग्रहण नहीं हो सकता है ।
और लघुन्यास में इस प्रकार कहा है -: 'वत्तस्याम्' १/१ / ३४ में 'वत्' और 'तस्' के साहचर्य से 'आम्' तद्धित का अर्थात् 'किं-त्याद्येऽव्यया' ७/३/८ से हुए 'आम्' का ग्रहण करना । यहाँ 'तद्धित का' ऐसा कहा है उसके उपलक्षण से 'धातोरनेकस्वरादाम्' ३/४/४६ इत्यादि सूत्र
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