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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.५०)
१३१ इस न्याय की अनित्यता इस प्रकार है-: यद्यपि यह न्याय नित्य होने पर भी जहाँ अनिष्टरूपसिद्धि होती हो वहाँ या शिष्टपुरुषप्रयुक्त रूप से भिन्न रूप होता हो वहाँ उसी रूप/प्रयोग शास्त्र के नियम और न्याय के अनुसार साधु/सही होने पर भी असाधु/अनुचित माना जाता है । उदा. 'चिकीर्ण्यते' में 'सन्नन्त' कृ धातु है और उसका कर्मणि -वर्तमाना अन्यदर्थ में प्रयुक्त यह रूप है। यहाँ 'चिकीर्ष' को 'क्यः शिति' ३/४/७० से क्य होगा अर्थात्, 'चिकीर्ष + क्य + ते' होगा । यहाँ एकसाथ 'दीर्घश्च्वियङ्यक्क्येषु च' ४/३/१०८ से स्वर के आदेश स्वरूप 'ष' के 'अ' का दीर्घ होने की प्राप्ति है, और 'अतः' ४/३/८२ से ष के अ का लोप होने की भी प्राप्ति है। यहाँ 'स्पर्द्ध' ७/४/११९ और ‘लोपात्स्वरादेशः ॥४९॥ न्याय-दोनों से दीर्घ ही हो सकता है तथापि दीर्घ न करके 'अतः' ४/३/८२ से 'अ' का लोप किया है क्योंकि शिष्टपुरुषों ने अ का लोप ही किया है और वही इष्ट है।
इस न्याय के ज्ञापक वृद्धिः स्वरेष्वादेः-' ७/४/१ के प्राक् पाठ के बारे में श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि 'स्पर्द्ध' ७/४/११९ सूत्र की व्याख्या में बताया है उसी प्रकार 'पर' शब्द इष्टवाची लेना और उसी प्रकार से अर्थ करने पर जहाँ तुल्यबलयुक्त सूत्रो की स्पर्धा हो वहाँ जो इष्ट हो वही होता है । अर्थात् वही इष्ट पूर्व होने पर भी पर सूत्र का बाध करता है और इस प्रकार महाभाष्य में भी बताया है, अत: जहाँ जहाँ ऐसी परिस्थिति हो वहाँ वहाँ ऊपर बताया उसी प्रकार अर्थ करना । यद्यपि पाणिनीय तंत्र में वृद्धिसूत्र ही पर है और लोपसूत्र पूर्व है, अतः वहाँ इस न्याय की कोई आवश्यकता नहीं है । तथा शाकटायन, चान्द्र व जैनेन्द्र परिभाषावृत्ति में यह न्याय प्राप्त नहीं है, शायद वहाँ भी परत्व से ही निर्वाह हो सकता होगा।
॥५०॥ आदेशादागमः ॥ आदेश से आगम बलवान् है ।
उदा. अर्पयति प्रयोग में 'ऋ' धातु से 'णि' पर में आने पर 'नामिनोऽकलिहलेः' ४/३/५१ सूत्र से होनेवाली वृद्धि का बाध करके प्रथम ‘अति-री-व्ली ही-....... पुः' ४/२/२१ से पु आगम होगा। बाद में 'पुस्पौ'- ४/३/३ सूत्र से गुण होगा और अर्पयति' प्रयोग सिद्ध होगा।
इस न्याय का ज्ञापक ऐसे प्रयोगों के लिए अन्य कोई प्रयत्न नहीं किया है वह है और यह न्याय अनित्य होने से 'द्वयोः कुलयोः' प्रयोग में कुल शब्द के विशेषण रूप नपुंसकलिंग 'द्वि' शब्द से 'अनामस्वरे नोऽन्तः' १/४/६४ से न का आगम नहीं हुआ है किन्तु 'आद्वेरः' २/१/४१ से अन्त्य इ का स्वर रूप आदेश 'अ' हुआ । यहाँ किसी को शंका हो सकती है कि 'अनामस्वरे नोऽन्तः' १/ ४/६४ सूत्र के न्यास में कहा है कि 'आद्वेरः' १/४/४१ सूत्र पर है और अत्वविधि अन्तरङ्ग है अत: वह न आगम का बाध करके प्रथम प्रवृत्त होगा । तो इस न्याय की अनित्यता के उदाहरण स्वरूप यह 'द्वयोः कुलयोः' प्रयोग कैसे उचित माना जाय ? आपकी बात सत्य है किन्तु यदि यह न्याय नित्य/बलवान् होता तो परत्व और अन्तरङ्गत्व होने पर भी उसका भी बाध करके 'न' आगम ही होता क्योंकि यह न्याय विशेष विधि रूप ही है किन्तु ऐसा नहीं हुआ है, वह इस न्याय की अनित्यता के
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