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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.५७)
१४१ अमूर्त न हो तो फलवत् कर्ता होने पर भी आत्मनेपद नहीं होता है । उदा. 'चैत्रस्य मन्यु विनयति, गर्छ विनयति, बुद्धया विनयति ।'
और दूसरा यह नियम होता है कि - 'कर्तृस्था'-३/३/४० सूत्र में कोई विशेष अर्थ नहीं कहा होने पर भी शमयति क्रियार्थक ही णींग् धातु से आत्मनेपद होता है अन्य अर्थवाले णींग धातु से आत्मनेपद विधि नहीं होगी क्योंकि शिष्ट पुरूषों को यही इष्ट है । अतः इस प्रकार व्यवस्था हुई है और होगी।
संक्षेप में, दोनों नियम इकट्ठे होकर इस प्रकार नियम होता है । शमयति क्रियार्थक णींग धातु से तब ही आत्मनेपद होता है कि जब उसका कर्म कर्ता में ही हो और अमूर्त हो तो, और इस प्रकार/ऐसा न हो तो फलवत् कर्ता हो तो भी णींग धात से आत्मनेपद नहीं होता है।
अत: 'शमयति' क्रिया से भिन्न अर्थवाले णींग धातु से सर्वत्र फलवत् कर्ता की विवक्षा हो या न हो तथापि आत्मनेपद और परस्मैपद दोनों सिद्ध हो जाते हैं । उदा. अजां ग्रामं नयति नयते वा।
श्री आदिनाथः' इत्यादि प्रयोग में 'श्री' के 'ई' का 'य' होने की प्राप्ति है तथापि नहीं हुआ है । यह शिष्टसंमत होने से इस न्याय से 'यत्व' का अभाव हुआ मानना चाहिए ।
जहाँ अनिष्ट प्रयोग होता है वहाँ न्याय की प्रवृत्ति नहीं होती है, उदा. 'लोपात्स्वरादेशः' न्याय की प्रवृत्ति 'चिकीर्घ्यते' इत्यादि प्रयोग में नहीं होती है। चिकीर्ण्यते' इत्यादि प्रयोग सिद्ध करते समय जब 'वयः शिति' ३/४/७० से क्य' होगा तब चिकीर्ष + य ते होगा । इसी परिस्थितिमें 'अ' का 'अतः' ४/३/८२ से लोप होने की संभावना है, और 'दीर्घश्च्वियङ्यक्क्ये षु च' ४/३/१०८ से दीर्घविधि होने की प्राप्ति और लोपात्स्वरादेशः' न्याय कहता है कि लोप से स्वर का आदेश बलवान् होता है तो यहाँ यदि यह न्याय प्रवृत्त होगा तो 'अतः' ४/३/८२ से अ का लोप होने के बजाय 'दीर्घश्च्वियङ्यक्क्येषु च' ४/३/१०८ से दीर्घविधि होगी और 'चिकीर्ण्यते' के स्थान पर 'चिकीर्षायते' रूप होगा किन्तु वह रूप अनिष्ट/असाधु होने से लोपात्स्वरादेशः' न्याय की प्रवृत्ति ऐसे अनिष्ट रूपों की सिद्धि के लिए नहीं की जायगी।
इस न्याय का ज्ञापक उन स्थानों पर अन्य कोई विशेष स्पष्टता का अभाव अर्थात् विशेषण की अनुक्ति ही है । 'कर्तृस्थामूर्ताऽऽप्यात्' ३/३/४० से 'शमयत्यर्थस्य', इस प्रकार 'नी' धातु का विशेषण नहीं कहा है और 'लोपात्स्वरादेश:' न्याय में दीर्घश्च्चियङ्-' ४/३/१०८ से होनेवाले दीर्घ का वर्जन करने के लिए दीर्घवर्जः स्वरादेशः' ऐसा नहीं कहा है, वह इस न्याय के अस्तित्व के कारण से ही नहीं कहा है।
यह न्याय अनित्य होने से इदमदसोऽक्येव' १/४/३ सूत्र में अनिष्ट नियम को दूर करने के लिए 'एव' कार का प्रयोग किया है।
'इदमदसोऽक्येव' - १/४/३ सूत्र का नियमत्व एवकार बिना भी सिद्ध ही है क्योंकि 'इमकैः अमुकैः' इत्यादि प्रयोग में 'भिस ऐस्' १/४/२ से ही भिस् का ऐस् आदेश सिद्ध होने पर भी यह
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