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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) है। यहाँ 'तर' और 'तम' दोनों प्रत्यय ग्रहण करने, किन्तु 'तरति, ताम्यति' से 'लिहादिभ्यः ' ५/१/ ५० सूत्र से 'अच्' प्रत्यय होकर निष्पन्न हुए 'तर' और 'तम' शब्द का ग्रहण नहीं करना चाहिए । इस न्याय का ज्ञापक, सूत्र में जो 'अविशिष्ट कथन' किया है, वह है । वह इस प्रकार है : यहाँ 'तर' और 'तम' दोनों प्रत्यय ही ग्रहण करना चाहिए किन्तु 'नाम' स्वरूप शब्द ग्रहण करना नहीं । 'पूर्वाह्णेतरां, पूर्वाह्णतमां' इत्यादि प्राचीन प्रयोगों में ये दो प्रत्यय ही दिखाई पड़ते हैं, तथापि सूत्र में कोई स्पष्टता नहीं की गई, वह इस न्याय के कारण ही ।
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यह न्याय अनित्य है, अतः 'स्त्रीदूत: '१/४/२९ से 'नारी सखी... २/४ /७६ इत्यादि सूत्र से विहित ङी प्रत्ययान्त की तरह 'तरी' इत्यादि अव्युत्पन्न होने से, वह ङी प्रत्ययान्त नहीं है किन्तु प्रत्ययरहित है तथापि ऐसे ईकारान्त शब्दों का ग्रहण होता है ।
इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापक 'धातोरिवर्णोवर्णस्येयुव् स्वरे प्रत्यये' २/१/५० में साक्षात् 'प्रत्यय' शब्द का ग्रहण है । (यदि यह न्याय नित्य होता तो सूत्र में 'प्रत्यय' शब्द रखने की कोई आवश्यकता नहीं थी, तथापि रखा गया है वह इस न्याय की अनित्यता को सूचित करता है 1 )
यहाँ 'तरी' इत्यादि शब्द उणादि प्रत्ययान्त है तथापि 'उणादयोऽव्युत्पन्नानि नामानि ' न्याय से यहाँ अव्युत्पत्ति पक्ष का आश्रय किया गया है ।
यह न्याय सिद्धम के पूर्व, व्याडि नाम से दिये गये व्याडि के परिभाषापाठ में ही उपलब्ध है किन्तु यह परिभाषापाठ व्याडि का अपना ही है ऐसा कोई निश्चित प्रमाण नहीं है, अतः सिद्धहेम के पूर्व किसीने भी इस सिद्धांत को परिभाषा के रूप में माना नहीं है, जब सिद्धहेम के पश्चात्कालीन प्रायः सभी परिभाषावृत्तियों में यह न्याय उपलब्ध है । अतः ऐसा मानने में कोई आपत्ति नहीं मालूम देती है । संभवत: वैयाकरण द्वारा इस सिद्धांत को परिभाषा के रूप में मान्यता सिद्धहेम के बाद ही प्रदान की गई हो ।
प्रो. के. वी. अभ्यंकरकृत जैनेन्द्र परिभाषावृत्ति में यह न्याय 'त्यात्यसंभवे त्यस्य ग्रहणम्' रूप में दिया है, यहाँ प्रत्यय को 'त्य' संज्ञा दी गई है ।
यह न्याय 'अङ्गस्य' (पा.सू. ६/४/१ ) के भाष्य में वचन के रूप में भाष्यकार ने बताया है और वहाँ भी किसी भी प्रकार का ज्ञापक नहीं रखा है, अतः उनके मतानुसार भी यह न्याय वाचनिकी परिभाषा के रूप में है ।
आनुपूर्वी विशिष्ट स्वरूपयुक्त शब्द के विषय में ही प्रत्यय या अप्रत्यय का प्रश्न उपस्थित होता है और वहाँ ही यह न्याय प्रवृत्त होता है और केवल वर्ण का निर्देश जहाँ हो वहाँ यह न्याय प्रवृत्त नहीं होता है । अतः 'इश्च्वावर्णस्याऽनव्ययस्य' ४ / ३ / १११ और 'अवर्णस्येवर्णादिनैदोदरल्' १ / २ / ६ इत्यादि सूत्र में इस न्याय की प्रवृत्ति नहीं होती है ।
पाणिनीय व्याकरण में प्राचीन मतानुसार इस न्याय का स्वीकार हुआ है, जबकि नवीन
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