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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) में कथित हो, वही लेना, किन्तु अन्य अधिकार में कथित हो ऐसे अप्राकरणिक का ग्रहण नहीं करना ।
उदा: 'इञ इत:' २/४ /७१ ङी विधायक सूत्र में जो 'इञ्' प्रत्यय कहा वही इञ् प्रत्यय व्याकरण में दो प्रकार के आते हैं। एक तद्धित के अधिकार में 'अत इञ्' ६ / १ / ३१ 'सुतङ्गमादेरिञ्' ६/२/८५ से होनेवाला और दूसरा कृत्प्रत्यय विधायक 'प्रश्नाख्याने वेञ्' ५/३/ ११९ सूत्र से होनेवाला 'इञ्' प्रत्यय भी है, तो यहाँ कौनसा 'इञ्' प्रत्यय ग्रहण करना ? तब 'यत्रो डायन् च वा' २/४/६७ सूत्र से 'यञ्' इत्यादि तद्धित प्रत्यय ग्रहण किये हैं, अतः यहाँ तद्धित का 'इञ्' प्रत्यय प्राकरणिक है, जबकि 'प्रश्नाख्याने वेञ्' ५ / ३ / ११९ से होनेवाला कृत्सूत्रोक्त 'इञ्' प्रत्यय अप्राकरणिक है । अतः यहाँ इस न्याय से प्राकरणिक तद्धित के 'इञ्' प्रत्यय का ग्रहण होगा किन्तु 'प्रश्नाख्याने वेञ्' ५/३/११९ से होनेवाले 'इञ्' प्रत्यय का ग्रहण नहीं होगा । अतः 'सुतङ्गमेन निर्वृत्ता सौतङ्गमी' में 'इञ इत: ' २/४/७१ से 'ङी' प्रत्यय होगा ।
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प्रश्न होने पर 'इञ्' प्रत्यय इस प्रकार होता है ' हे चैत्र त्वं कां कारिमकार्षीः ।' और आख्यान अर्थात् किसीके प्रश्न के उत्तर में भी 'इञ्' प्रत्यय होता है । किसीने पूछा, उसी वक्त, कोई प्रत्युत्तर देता है 'सर्वां कारिमकार्षम् ।' यहाँ 'कारि' शब्द 'इञ्' प्रत्ययान्त और इकारान्त भी है, अतः 'इञ इतः ' २/४/७१ से ङी होने की प्राप्ति है किन्तु यहाँ 'इञ इतः ' २/४ /७१ में 'इञ्' प्रत्यय तद्धित काही ग्रहण करना क्योंकि वह प्राकरणिक है। किन्तु 'कारि' शब्द में स्थित् 'इञ्' प्रत्यय कृत्सूत्रोक्त होने से अप्राकरणिक है अतः उसका ग्रहण नहीं होता है, अत एव यहाँ 'इञ इतः ' २/४ /७१ से 'ङी' प्रत्यय नहीं होगा ।
इस न्याय का ज्ञापक 'शकादिभ्यो द्रेर्लुप्' ६ / १ / १२० सूत्र में 'द्रि' संज्ञा का अधिकार/ अनुवृत्ति चली आती ही है, तथापि 'देरञणोऽप्राच्यभर्गादे: ' ६/१/१२३ में पुनः 'द्रि' का ग्रहण किया, वह है । इस न्याय से प्राकरणिक ऐसे द्रि संज्ञक 'अञ्' और 'अण्' प्रत्यय का ही लुप् होता है किन्तु अप्राकरणिक एसे द्रि संज्ञक 'अञ्' और 'अण्' इत्यादि का लोप नहीं होगा, इस प्रकार आचार्यश्री को शंका होने से, अप्राकरणिक ऐसे द्रि संज्ञक प्रत्ययों का लोप करने के लिए पुनः 'द्रेरञणोऽप्राच्यभर्गादे: ' ६/१/१२३ में द्रि का ग्रहण किया है ।
भावार्थ इस प्रकार है :- 'देरञणोऽप्राच्यभर्गादे: ' ६ / १ / १२३ सूत्र अपत्याधिकार में है और 'द्रि' संज्ञा दो प्रकार की है। एक अपत्याधिकार में आयी हुई 'राष्ट्रक्षत्रियात् सरूपाद्राजाऽपत्ये द्रिरञ्' ६/१/११४ इत्यादि सूत्र से होनेवाली द्रि संज्ञा, जो यहाँ प्राकरणिकी है और दूसरी 'शस्त्रजीविसंघाधिकार' में 'पूगादमुख्यकाञ्ज्यो द्रि: ' ७/३/६० इत्यादि सूत्र से होनेवाली द्रि संज्ञा जो यहाँ अप्राकरणिकी है, अतः यहाँ प्राकरणिकी अपत्याधिकारस्था द्रि संज्ञा का ग्रहण हो सकेगा, किन्तु शस्त्रजीविसंघाधिकारस्था द्रि संज्ञा का ग्रहण नहीं हो सकता है । उसी शस्त्रजीविसङ्घाधिकारस्था द्रि संज्ञा का भी, 'रञणो-' ६/१/१२३ इत्यादि सूत्र में ग्रहण करने के लिए पुनः द्रि का ग्रहण किया है। संक्षेप में, 'द्रेरणो —' ६ / १ / १२३ सूत्र में दोनों अधिकार में आये हुए द्रिसंज्ञक 'अञ्'
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