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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ५९)
१५१ किन्तु श्रीलावण्यसूरिजी की यह बात उचित प्रतीत नहीं होती है क्योंकि सर्वादि गणपाठ में डतर-डतम के ग्रहण के दो हेतु/प्रयोजन आचार्यश्री ने स्वयं स्पष्ट रूप से बताये हैं :
१. अन्य स्वार्थिक प्रत्ययान्त सर्वादि शब्दों के सर्वादित्व का निषेध करने के लिए ।
२. 'पञ्चतोऽन्यादेरनेकतरस्य दः' १/४/५८ से होनेवाले 'सि' और 'अम्' प्रत्यय का 'द्' आदेश करने के लिए।
प्रथम हेतु द्वारा आचार्यश्री ने स्पष्ट रूप से डतर-डतम ग्रहण को नियमार्थत्व प्रदान किया है, अतः श्रीहेमहंसगणि की बात बिलकुल आधाररहित है ही नहीं । यदि आचार्यश्री को केवल 'सि'
और 'अम्' का 'द्' आदेश ही स्वीकार्य होता तो, सर्वादि गणपाठ में डतर-डतम को रखने के बजाय 'पञ्चतोऽन्यादेरनेकतरस्य दः' १/४/५८ सूत्र में ही 'अन्याऽन्यतरेतर डतर डतमस्य' शब्द से ही अन्यादि पञ्चक का स्पष्ट रूप से ग्रहण किया होता, किन्तु वैसा न करके सर्वादि गणपाठ में डतर-डतम को रखे, वह नियमार्थ ही है।।
दूसरे हेतु/प्रयोजन के कारण अन्य-वैयाकरणों-वृत्तिकारों इत्यादि को डतर-डतम ग्रहण के नियमार्थत्व के विषय में आशंका पैदा होने की संभावना के कारण सूत्रकार आचार्यश्री ने स्वयं इसका समाधान दिया है। अतः श्रीलावण्यसूरिजी द्वारा उपस्थित की गई शंका बिल्कुल आधार रहित न होने पर भी उचित नहीं है।
संक्षेप में, डतर-डतम का सर्वादि गणपाठ में ग्रहण नियमार्थ ही है, अतः वह इस न्याय का ज्ञापक बनता है।
__यद्यपि प्रकृति के ग्रहण से स्वार्थिक प्रत्ययान्त का ग्रहण सर्वत्र-सभी परम्परा में होता ही होगा, तथापि शाकटायन परिभाषापाठ को छोडकर अन्यत्र कहीं भी यह न्याय परिभाषा के रूप में संगृहीत नहीं है।
॥ ५९॥ प्रत्ययाप्रत्यययोः प्रत्ययस्यैव ॥ २ ॥ प्रत्यय और अप्रत्यय दोनों का ग्रहण प्राप्त हो तो प्रत्यय का ही ग्रहण होता है।
'ग्रहण' शब्द का यहाँ और अगले न्याय के साथ भी सम्बन्ध है । जहाँ विवक्षित शब्द 'प्रत्यय' स्वरूप और 'अप्रत्यय' स्वरूप भी हो, वहाँ प्रत्यय स्वरूप ही ग्रहण करना किन्तु अप्रत्यय स्वरूप ग्रहण नहीं करना ।
__'स्वं रूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा' ॥१॥ न्याय से दोनों का ग्रहण प्राप्त था, उनमें से प्रत्यय का ग्रहण करने के लिए और अप्रत्यय का निषेध करने के लिए यह न्याय है।
(अगले तीन न्याय भी जहाँ इस प्रकार दोनों का ग्रहण संभव हो, वहाँ एक का निषेध करने के लिए है।)
उदा. 'कालात् तन तर तम काले' ३/२/२४ सूत्र में सप्तमी अलुप् का विधान किया गया
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