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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.६०) . मतावलंबी इस न्याय को मान्य करते नहीं हैं, उनके मतानुसार यदि यह न्याय होता तो वार्त्तिककार ने 'लिति प्रत्ययग्रहणं कर्तव्यम्' इस प्रकार वार्तिक न किया होता । अन्य के मतानुसार इष्ट प्रत्यय का ग्रहण करने के लिए ही यह न्याय है और पूर्वोक्त वार्तिक का ही वह अनुवाद है और जहाँ केवल प्रत्यय का ग्रहण न करना हो वहाँ आचार्यश्री/सूत्रकार के व्याख्यानानुसार अर्थ करना चाहिए ।
इस न्याय का स्वीकार करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि इस न्याय का स्वीकार करने पर जहाँ केवल प्रत्यय का ग्रहण न करना हो वहाँ वृत्तिकार या भाष्यकार के व्याख्यान का अनुसरण करना पड़ता है और अस्वीकार करने पर भी केवल प्रत्यय का ग्रहण करने के लिए वृत्तिकार या भाष्यकार के व्याख्यान का अनुसरण करना पड़ता है। ऐसे स्वीकार और अस्वीकार दोनों में समान दोष होने से स्वीकार करना उचित है और जहाँ इसकी प्रवृत्ति और निवृत्ति करनी हो वहाँ लक्ष्यानुसार इस न्याय की प्रवृत्ति-निवृत्ति मान लेना ।
यह न्याय शास्त्रकार ने शास्त्र में स्थान-स्थान पर वचन के रूप में कहा है, अतः वह वाचनिकी परिभाषा है। और वहीं वहीं सूत्र में उन्हीं शब्दों के प्रत्ययत्व का प्रतिपादन करनेवाला है।
॥६०॥ अदाद्यनदाद्योरनदादेरेव ॥ ३॥ 'अदादि' धातु और 'अनदादि' धातु का ग्रहण संभव हो तो 'अनदादि' धातु का ही ग्रहण करना ।
'धातोः' पद यहाँ अध्याहार है ।
यहाँ विवक्षित धातु अदादि गण का हो और अदादि को छोड़कर अन्य किसी गण में वैसे ही स्वरूपवाला धातु हो तो अदादि गण के धातु का ग्रहण न करके, अदादि से भिन्न धातु का ग्रहण करना ।
उदा. 'उपान्वध्याङ्वसः' २/२/२१ सूत्र में 'वस्' धातु कहा है । यहाँ 'वस्' धातु के दो प्रकार हैं । एक 'वस्' धातु अदादि गण का हैं । उसका 'वस्ते' रूप होता है जबकि दूसरा 'वस्' धातु भ्वादि गण का है, उसका 'वसति' रूप होता है । तो यहाँ इन दोनों में से कौन-सा ग्रहण करना या दोनों का ग्रहण करना ? तो इस न्याय के आधार पर यहाँ 'वसति' रूपवाले अर्थात् 'भ्वादि' के 'वस्' धातु का ग्रहण करना, किन्तु 'वस्ते' रूपवाले अदादि के 'वस्' धातुका ग्रहण न करना।
इस न्याय की स्थापना 'शासस्हन: शाध्येधिजहि' ४/२/८४ सूत्र से होती है क्योंकि इस सूत्र में 'अस्' धातु अदादि ग्रहण का ग्रहण करना है ऐसा उसके साथ आये हुए 'शास्' और 'हन्' धातु से निश्चित होता है। यदि यह न्याय न होता तो यहाँ इस सूत्र में 'अस्' धातु से अदादि गण के 'अस्' धातु का ग्रहण करने के लिए 'शास्' और 'हन्' धातुओं के साहचर्य की कोई आवश्यकता नहीं है किन्तु यहाँ 'असति' और 'अस्यति' का ग्रहण नहीं करना है । अतः इस न्याय से संभावित 'असति' और 'अस्यति' के ग्रहण का निषेध करने के लिए 'शास्' और 'हन्' के साहचर्य की आवश्यकता है।
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