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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) आदेश होते हैं।
ये डतर और डतम प्रत्यय का ग्रहण नियमार्थ है, ऐसा आचार्यश्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने बताया है और वही नियम इस प्रकार है -:
स्वार्थिक प्रत्ययान्त सर्वादि शब्दों की मूल प्रकृति सर्वादि होने से उसे सर्वादित्व की प्राप्ति होती है किन्तु वह प्राप्ति डतर और डतम, दो ही स्वार्थिक प्रत्ययान्त शब्दों से होती है किन्तु अन्य स्वार्थिक प्रत्यय है वही प्रत्ययान्त सर्वादि शब्दों को सर्वादित्व प्राप्त नहीं होता है, अतः प्रकृष्ट अर्थ में हुए स्वार्थिक तमप् प्रत्ययान्त 'सर्वतम' शब्द को सर्वादि नहीं माना जा सकता है, अतः उससे पर आये हुए 'डे, ङसि, ङि'का' 'स्मै स्मात् स्मिन्' आदेश नहीं होंगे और 'सर्वतमाय, सर्वतमात्' और 'सर्वतमे' रूप होंगे।
- इस प्रकार अन्य स्वार्थिक प्रत्यय जिसके अन्त हैं ऐसे सर्वादि शब्दों के सर्वादित्व को दूर करने के लिए डतर और डतम प्रत्यय का ग्रहण इसलिए ही किया जाता है कि जिससे किसी भी प्रकार के विशेष भेदभाव बिना ही सब स्वार्थिक प्रत्ययान्त सर्वादि शब्दों को किसी भी प्रकार से सर्वादित्व की प्राप्ति होती हो, और इन सब को सर्वादित्व की प्राप्ति इस न्याय से ही होती है क्योंकि अन्य किसी भी प्रकार से कभी स्वार्थिकप्रत्ययान्त सर्वादि शब्दों को सर्वादित्व की प्राप्ति नहीं होती है।
अतः इस प्रकार से इस न्याय के कारण सब प्रकार के स्वार्थिकप्रत्ययान्त सर्वादि शब्दों को, मूल प्रकृति सर्वादि होने से सर्वादित्व की प्राप्ति होने से, डतर और डतम को छोड़कर अन्य स्वार्थिकप्रत्यय जिसके अन्त में है ऐसे सर्वादि शब्दों के सर्वादित्व का निषेध करने के लिए जो डतर
और डतम प्रत्यय का सर्वादि गण में ग्रहण किया, उसका इस न्याय के बिना असंभव होने से ही इस न्याय का ज्ञापक है।
यह न्याय अनित्य है । अत: 'पणायति' प्रयोग में 'पणि' धातु 'इदित्' होने पर भी आत्मनेपद नहीं होता है।
इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापक 'णिङ्' का ङित्त्व है, अतः 'कामयते' में आत्मनेपद होता है। यदि यह न्याय नित्य होता तो 'कामयते' प्रयोग करते समय भी 'कम्' धातु से आत्मनेपद ही होता, क्योंकि मूल 'कम्' धातु आत्मनेपदी ही है, तथापि 'कामयते' में आत्मनेपद करने के लिए णिङ् प्रत्यय में ङ् रखा है, वह इस न्याय की अनित्यता को सूचित करता है अर्थात् जैसे 'पणायति' में आत्मनेपद के स्थान पर परस्मैपद हुआ, वैसे यहाँ भी परस्मैपद हो जायेगा ऐसी आशंका से ही आचार्यश्री ने 'णिङ् को ङित् किया है।
स्वार्थिक प्रत्ययों का क्या अर्थ हो सकता है, इसके बारे में चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि 'प्रतीयतेऽर्थोऽनेन इति प्रत्ययः' इस प्रकार व्युत्पत्ति करने पर, प्रत्यय से किसी भी अर्थ का प्रतिपादन होना चाहिए । यहाँ बताये गये स्वार्थ में होनेवाले 'आय' इत्यादि प्रत्ययों का कोई अर्थ प्रतीत नहीं होता है और शास्त्र में बताया भी नहीं तथापि उसका प्रकृति के अर्थ में ही विधान किया गया होने से प्रकृति का ही अर्थ प्रत्यय का मान लेना चाहिए क्योंकि कोई भी प्रत्यय अनर्थक नहीं होता है।
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