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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण
उसके बारे में श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि इस न्याय के बिना ओण धातु का ऋदित्करण व्यर्थ हो तब ही वह इस न्याय का ज्ञापक बन सकता है किन्तु ऐसा नहीं होता है। मान लिया जाय कि अभी यह न्याय नहीं है, अतः 'स्वरादेर्द्वितीय: ' ४/१/४ से होनेवाला द्वित्व से 'उपान्त्यस्याऽसमानलोपि शास्वृदितो डे' ४ / २ / ३५ से होनेवाला हूस्व पर होने से प्रथम वही होने की प्राप्ति है। अतः उसका निवारण करने के लिए 'ओण' धातु को ऋटित किया है। इस प्रकार वह सार्थक है अतः उससे इस न्याय का ज्ञापन नहीं हो सकता है। और यह न्याय होने पर भी ' भा भवानटिटद्' में उपान्त्यहस्वविधान पर होने से, वह द्वित्व का बाध करेगा ही, और इसी प्रयोग की भी सिद्धि हो जाती है, अतः इस न्याय के ज्ञापन की कोई आवश्यकता नहीं है । और उपान्त्य का ह्रस्व, वह ङ परक णि पर में आने से होता है, अतः उसे बहिरङ्ग माना जाय और द्वित्व केवल ङनिमित्तक होने से उसे अन्तरङ्ग माना जाय तो द्वित्व करते समय जो प्रथम हुआ है वह उपान्त्यस्व असिद्ध होगा, तो 'ओण' धातु को ऋदित् किया है वह व्यर्थ होगा तथापि 'परान्नित्यम्' न्याय का किसी भी प्रकार से ज्ञापन कर सकता नहीं है। इस प्रकार से केवल इतना ही ज्ञापन हो सकता है कि बहिरङ्ग ऐसा उपान्यह्रस्व, अन्तरङ्ग ऐसे, द्वित्व के पूर्व ही होता है और केवल इतने से 'मा भवानटिद्' की भी सिद्धि हो सकती है ।
इन सब बातों से इतना ही सिद्ध हो सकता है कि यह न्याय ज्ञापकसिद्ध नहीं है । 'मा भवानटन्तं प्रयुक्त' में 'माङ' का योग होने से 'प्रायुक्त' के स्थान पर 'प्रयुक्त' रखा है । यहाँ उदाहरण में 'मा' और 'भवान्' क्यों रखा गया है इसकी स्पष्टता करते हुए न्यास में श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि यदि यहाँ माङ् का प्रयोग न किया होता तो 'स्वरादेस्तासु' ४/४/३१ से आद्य स्वर 'अ' की वृद्धि होगी तो उपान्त्य ह्रस्व करने के बाद वृद्धि की गयी है या उपान्त्यहस्व किये बिना ही अकार की वृद्धि की गई है, वह मालूम नहीं होगा । अतः वृद्धि को दूर करने के लिए माङ् का प्रयोग किया है । वैसा करने के बाद भी माङ् के आ के साथ अटिटद् के अ की सन्धि होने के बाद, मालूम नहीं देता कि उपान्त्य ह्रस्व करने के बाद हुए अ के साथ सन्धि हुई है या उपान्त्य ह्रस्व किये बिना आ के साथ सन्धि हुई है । अतः माङ् और अटिटद् के बीच भवान् पद रखा है और उसी प्रकार 'मा भवानोणिणद्' में जान लेना ।
यह न्याय पाणिनीय परम्परा में केवल शेषाद्रिनाथ और नागेश ने दिया है और हैम के पूर्ववर्ती भावमिश्रकृत कातन्त्र परिभाषावृत्ति, कालापपरिभाषापाठ व जैनेन्द्रपरिभाषावृत्ति में है । ॥ ५३ ॥ नित्यादन्तरङ्गम् ॥
नित्य कार्य से भी अन्तरङ्ग कार्य बलवान् है ।
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'अनित्यमपि' शब्द यहाँ अध्याहार है अर्थात् अनित्य हो ऐसा अन्तरङ्ग कार्य नित्य कार्य से यहाँ न्यास में श्रीहेमहंसगणि ने दिये हुए प्रतीकात्मक, इस न्याय की वृत्ति के शब्द में 'मा भवानटन्तम् प्रयुक्त' दिया है और उसीके अनुसार यहाँ समझ दी गई हैं। जब कि मूलन्यायवृत्ति में 'प्रायुक्त 'है। 'प्रायुक्त' में शायद लेखक का लेख दोष हो सकता है या तो मुद्रणदोष भी हो सकता है ।
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