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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ५२)
१३५ करने के लिए 'ओण' धातु को ऋदित् किया है। अतः ‘मा भवानोणिणद्' इत्यादि प्रयोग में द्वित्व से पूर्व ही इस्वविधि का निषेध होगा। जबकि ‘मा भवानटन्तं प्रयुक्त इति मा भवानटिटद्' प्रयोग में प्रथम हुस्व होगा बाद में द्वित्व होगा और वह प्रयोग सिद्ध होगा । यदि यह न्याय न होता तो इस प्रकार हुस्वविधि प्रथम होती है उसका ज्ञापन करने के लिए ओण धातु को आचार्यश्री ने ऋदित न किया होता क्योंकि इस्वविधि पर है और द्वित्वविधि पूर्व है । अतः परत्व से ही काम चल सकता था।
तथापि केवल इस न्याय की अपेक्षा से पर कार्य से नित्यकार्य बलवान् बनता है और वही नित्य कार्यरूप द्वित्व ही प्रथम होगा, किन्तु अनित्य ऐसा उपान्त्य हुस्व प्रथम नहीं होगा, तो 'मा भवानटिटद्' जैसे प्रयोग सिद्ध नहीं हो सकेंगे । ऐसी आशंका से ही ऐसे प्रयोगों की सिद्धि के लिए हुस्वविधि प्रथम होगी उसका ज्ञापन करने के लिए आचार्यश्री ने 'ओण' धातु को ऋदित् किया है।
इस न्याय का उदाहरण जो बताया गया है वही उचित नहीं है । यहाँ 'युष्या' और 'अस्या' की सिद्धि इस प्रकार बतायी गई है । 'युष्मान् अस्मान् वा आचक्षाणेन' विग्रह करने पर 'युष्मद् + णिच् + क्विप् + टा' और 'अस्मद् + णिच् + क्विप् + टा' होगा । यहाँ णिच् पर में होने से 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' ७/४/४३ से युष्मद् और अस्मद् के अन्त्य 'अद्' का लोप होगा और 'अप्रयोगीत्' १/१/३७ से क्विप् का लोप होगा बाद में 'णेरनिटि' ४/३/८३ से णिच् का लोप होता है, अतः 'युष्म् + टा 'और 'अस्म+टा' रहेगा । यहाँ श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि 'टा' प्रत्यय के कारण से युष्म
और अस्म् का 'त्वमौ प्रत्ययोत्तरपदे चैकस्मिन्' २/१/११ से 'त्व-म' आदेश होने की प्राप्ति है और 'टायोसि यः' २/१/७ से 'य' होगा । अत: सर्वप्रथम 'य' ही होगा किन्तु 'त्व-म' आदेश नहीं होंगे। यह बात नितांत अनुचित है। यहाँ युष्मद् और अस्मद् के म् पर्यन्त के अवयव का आदेश तभी ही होता है, जब मूल-विग्रह वाक्य में ही युष्मद् और अस्मद् एकवचन में हों, तब । यह बात सिद्धहेमबृहद्वृत्ति और उसके उदाहरण में स्पष्ट रूप से बतायी है । यहाँ विग्रहवाक्य में 'युष्मान्अस्मान् है अर्थात् वह बहुत्वविशिष्ट है, अतः उसका ‘त्व-म' आदेश होने की प्राप्ति ही नहीं है, अतः यहाँ किसी भी परशास्त्र की प्राप्ति नहीं है, अतः 'म्' का 'य' आदेश स्वतः सिद्ध है।
संक्षेप में, यह उदाहरण इस न्याय के लिए उचित नहीं है। श्रीलावण्यसूरिजी भी ऐसा मानते हैं । 'दीव्यति' उदाहरण इस न्याय के लिए उचित है । यहाँ दिवादि के दिव् धातु से वर्तमाना का अन्यदर्थे एकवचन का प्रत्यय तिव् आयेगा । उसे 'एताः शितः' ३/३/१० से शित् संज्ञा होगी। अब यहाँ 'लघोरुपान्त्यस्य' ४/३/४ से गुण होने की प्राप्ति है और 'दिवादेः श्यः' ३/४/७२ से 'श्य' होने की प्राप्ति है। 'श्य' नित्य है । जबकि 'लघोरुपान्त्यस्य' ४/३/४ से होनेवाला गुण पर है, उसका बाध करके नित्यशास्त्र ही प्रवृत्त होगा । दिव् + य + ति होगा । अब 'शिदवित्' ४/३/२० से श्यः ङिद्वद् होने से गुण नहीं होगा, वह इस न्याय का साफल्य है, और बाद में 'भ्वादेर्नामिनो दी?र्वोर्व्यञ्जने' २/१/६३ से दिव् का इ दीर्घ होगा और दीव्यति रूप सिद्ध होगा।
इस न्याय के ज्ञापक के रूप में श्रीहेमहंसगणि ने ओण धातु के ऋदित्करण को बताया है।
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