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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ५१)
१३३ विशेषण है । और प्रियतिसृ शब्द का विग्रह-वाक्य इस प्रकार है । - : 'प्रियाः तिस्रो यस्मिन् ( यस्य ) तत् प्रियतिस कुलम्' 'प्रियत्रि' शब्द में 'त्रि' का 'तिस' आदेश, 'न' का आगम होने से पहले ही होगा, बाद में 'न' का आगम होगा ।
इस न्याय का ज्ञापक 'ऋतो र: स्वरेऽनि' २/१/२ सत्र में तिस्त्र इत्यादि रूप में 'ऋ' का 'र' करने से सम्बन्धित विधि सूत्र में 'अनि' शब्द से नकार विषय का वर्जन किया है. उससे होता है । यदि यह न्याय न होता तो स्वरादि स्यादि प्रत्यय पर में होने से पूर्वन्याय से 'न' का आगम ही होता और तो, कौन से ऋ की रत्वविधि में नकार विषय का वर्जन करें ? तथापि 'अनि' शब्द से नकार के विषय का वर्जन किया, उससे ज्ञात होता है कि इस न्याय से प्रथम तिसृ आदेश होने के बाद ही 'न' का आगम होगा।
यहाँ किसीको शंका होती है कि 'न' के आगम को छोड़कर 'प्रियतिसृणाम्' में 'आम्' का 'नाम्' आदेश होनेवाला हो तभी रत्व का निषेध करने के लिए 'अनि' कहा गया है। किन्तु वह सत्य नहीं है क्योंकि केवल 'नाम्' के लिए ही नकार विषय का वर्जन करना होता तो 'अनामि' इस प्रकार असंदिग्ध रीति से कहा होता किन्तु 'अनि' इस प्रकार सामान्यतया कहा गया, वह 'न' आगम विषय का वर्जन करने के लिए ही कहा गया है।
इस न्याय की अनित्यता नहीं मालूम देती है । इसके बाद आनेवाले न्याय 'परान्नित्यम्' ॥५२॥ की भी अनित्यता नहीं है।
इस न्याय के न्यास में श्रीहेमहंसगणि पूर्वपक्ष के रूप में ऐसी शंका उपस्थित करते हैं कि 'नोऽन्त' (आगम) से तिसृ आदेश पर है, अत: तिसृ आदेश ही प्रथम होनेवाला है, तो यहाँ इस न्याय की क्या आवश्यकता है ? इसी शंका का समाधान देते हुए वे कहते हैं कि आप की शंका उचित नहीं है, वस्तुतः तिसृ आदेश होने के बाद भी 'न' का आगम तो होनेवाला ही है अर्थात् 'न' आगम नित्य है और 'परान्नित्यम्' न्याय से 'न' आगम ही प्रथम होने की प्राप्ति है, उसको इस न्याय से दूर किया जाता है।
__'ऋतो र: स्वरेऽनि' २/१/२ सूत्रगत 'अनि' के ज्ञापकत्व सम्बन्धित विचार करते हुए श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि यदि यह न्याय न होता तो स्वरादि स्यादि प्रत्यय पर में होने से प्रथम ही 'न' आगम हो जाने से 'न' आगम रूप व्यवधान के कारण तिसृ आदेश नहीं होगा तो किस के ऋ का 'न' पर में आने से रत्व करने का निषेध करें ?
यहाँ किसीको शंका होती है कि आगम किस तरह व्यवधान हो सकता है ? क्योंकि 'आगमा यद्गुणीभूतास्तद्ग्रहणेन गृह्यते ॥' न्याय से आगम स्वाङ्ग बनता है और 'स्वाङ्गमव्यवधायि ॥' न्याय से आगम व्यवधानरूप बनता नहीं है, तो यहाँ 'न' आगम व्यवधान किस तरह बन सकता है। इसका समाधान देते हुए श्रीहेमहंसगणि इस न्याय के न्यास में कहते हैं कि जिस शब्द से 'न' आगम होता है उसी शब्द सम्बन्धित कार्य जब करना हो तब यह न्याय उपस्थित होता है जबकि यहाँ 'न' आगम 'प्रियत्रि' शब्द से होता है और तिसृ आदेशरूप कार्य 'त्रि' रूप अवयव का है, अतः उसकी अपेक्षा
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