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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) के अभाव में दीर्घविधि नहीं होगी तो 'आशी:' प्रयोग नहीं हो सकेगा तथापि श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने 'आशी: क्यात्...सीमहि' ३/३/१२ में 'आशी:' प्रयोग किया उसे इस न्याय का ज्ञापक मानना उचित है।
यह न्याय भी किसी न किसी प्रकार से सभी व्याकरण परम्परा में मान्य है।
॥ ५४ ॥ अन्तरङ्गाच्चानवकाशम् ॥ अन्तरङ्ग कार्य से भी अनवकाश कार्य बलवान् है ।
'बहिरङ्गमपि' यहाँ अध्याहार है अर्थात् अन्तरङ्ग कार्य से भी अनवकाश/निरवकाश कार्य बहिरङ्ग होने पर भी वह बलवान् गिना जाता है।
उदा.. 'त्वम्, अहम्' । 'युष्मद् +सि' और 'अस्मद् +सि' में 'त्वमौ प्रत्ययोत्तरपदे चैकस्मिन्' २/१/११ से युष्मद् और अस्मद् के म् पर्यन्त अवयव का अनुक्रम से त्व और म आदेश होने की प्राप्ति है किन्तु वही आदेश होने पर 'त्वमहं सिना प्राक चाकः' २/१/१२ अनवकाश/निष्फल हो जायेगा। जबकि 'त्वमौ प्रत्योत्तरपदे चैकस्मिन् २/१/११ इससे भिन्न स्थल पर भी प्रवृत्त होनेवाला है, अतः वह चरितार्थ है और सावकाश है। इसी परिस्थिति में 'त्वमहं सिना प्राक चाकः' २/१/ १२, 'त्वमौ प्रत्ययोत्तरपदे चैकस्मिन्' २/१/११ का बाध करता है । इस न्याय का ज्ञापक 'त्वमहं सिना प्राक् चाकः' २/१/१२ सूत्र ही है, क्योंकि यदि यह न्याय न होता तो युष्मद् और अस्मद् के म पर्यन्त अवयव का त्व-म आदेश अन्तरङ्ग होने से होता ही और, तो यह सूत्र व्यर्थ बन पाता, अतः इसी सूत्रकरण की कोई आवश्यकता नहीं थी, अत एव इसी सूत्रकरण व्यर्थ होकर इस न्याय का ज्ञापन करता है।
यह न्याय नित्य है।
पाणिनीय वैयाकरणों के मतानुसार निरवकाश और अपवाद दोनों एक ही हैं । तथापि यहाँ ऐसा न करके त्व और म प्रकृति के एक अंश का आदेश मानकर अन्तरङ्ग कहा है और त्वं तथा अहं को प्रकृति-प्रत्यय, उभयस्थाननिष्पन्न आदेश मानकर निरवकाश ऐसा बहिरङ्ग कहा है।
पाणिनीय तंत्र में परिभाषेन्दुशेखर में 'अन्तरङ्गादप्यपवादो बलीयान्' न्याय 'येन नाप्राप्ते' - न्याय से भिन्न बताया है तो कहीं पूर्व के अन्तरङ्गाद्'-न्याय में ही इस न्याय को समाविष्ट कर दिया * है । और वहाँ 'येन नाऽप्राप्ते-' न्याय को उसके बीजस्वरूप बताया है । संक्षेप में, दोनों न्याय की व्याख्या साथ ही प्राप्त होती है। सिद्धहेम की परम्परा में येन नाऽप्राप्ते-'न्याय एवकार सहित है जबकि पाणिनीय तंत्र में वह एवकार रहित है । अतः सिद्धहेम में उसके द्वारा बाध्यविशेष का विचार किया गया है। जबकि पाणिनीय तंत्र में वही न्याय द्वारा बाध्य-सामान्य और बाध्य - विशेष दोनों का विचार किया गया है । अतः सिद्धहेम में 'उत्सर्गादपवादः' न्याय को 'येन नाऽप्राप्ते-' न्याय से भिन्न बताया है। और वही आवश्यक भी है। उसी ही प्रकार से सिद्धहेम में 'अन्तरङ्गाच्चानवकाशम्' न्याय
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